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१२५ समभाव अर्थात जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रू-मित्र इन सब मे सममान को परिणत हुए परम योगीश्वरों के अर्थात श-मित्रादि सब ममान है, और सम्यग्दर्शन-सम्यग्नान-सम्यन रूप अभेद रत्नत्रय जिसका जमा है, ऐसी वीतराग निर्विकल्प में तिष्ठे हुए है, उन योगीश्वरों के हृदय में वीतराग परमानन्द करता हुआ जो स्फुरायमान होता है वही प्रकट परमात्मा है सानो । अति उपरोक्त गुणों से युक्त होनेवाला योगी ही शुद्धारमा रायमान सुखानुभव कहता है। वीतराग निर्विकल्प समाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानतीति
( प. प्र. ८९ टी. ) वीतराग निर्विकल्स समाधि स्थित अन्तरात्मा पर स्वा को हा है । अर्थात भंदविज्ञान के बल से परद्रय से स्वद्रव्य पृथक
राग निर्विकल्प समाधि विषयं च परमात्मानं प्रतिपाइयंति :
यहि सहि इविहिं जो जिय मुणहु ण जाइ । निम्मल-माणहं जो पिसा जो परमप्पु अगाई ॥ २३ ।। बेदः शास्त्ररिदिये यो जोवमन्तु न पाति । निमलध्यानस्थ यो विषयः स परमात्मा अनादि ।। २३ ।। अर्थातः- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, गेग इन पांच तरह बोंसे रहित निर्मल निज शुद्धात्म के जानकर उत्पन्न हुए नित्यानंद एकानेक रूपं व्यता व्यक्तरूपं
अरुपी स्वरुपी विचित्र स्वरुपम् । चैतम्याचतन्य अनेकान्तरूपं
चिदानन्दरुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ३ ।। अकर्ता सकर्ता भोक्ताभोक्तरुप
अमूर्ति समूति मुक्तामुक्त रुपम् । जाताजातरूपं ज्ञान ज्ञेयरूपं
चिदानन्दरूपं नमो स्वरूपम् ।। ४ ।।