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जित हार घाली. प.: जना मुख नहीं दिखता है, जमी प्रकार चित्र रागादि भावों से मलीन है, उसे अपने निज आत्मा का वर्शन नहीं हो सकता।
राग-द्वेषादि कल्लोलैरेलोलं यन्मनो जलम । स पश्यत्यात्मनस्तस्वं, तसत्त्वं नेतरो ।। ३५
( स. श. - पृ. ८१ ) जैसे समुद्र का जल जब पवन के द्वारा उटनेवाले तरंगों से चंचल होता है तब उसमें पदार्थ निर्मलता के साथ नहीं दिखाता है। परन्तु जक वहीं जल स्थिर होता है तब उस निर्मल जल में अपना मुंह या अन्य कोई पदार्थ साफ-साफ दिखता है । वैसे ही जब यह, मन, क्रोध, मान माया, लोभादि विकारी भावों से चंचल होता है तब उसमें आत्मा का स्वभाव नहीं झलकता है । परन्तु जब उसमें क्रोधाधि भाव नहीं होते है तब उस निर्मल मन में आत्मा का जो स्वरुप है सो वरावर दिखता है। तात्प। यह है कि जिस के मन से राग-द्वेषादि बिकारी भाव है वे आत्मा के स्वरूप को नहीं पा सकते और मोह सहित सम्यग्दृष्टी बोगी अपने स्वरूप के अनुभव में ऐसे दत्तचित्त होते है।
तमात्मानं कोऽसौ जानाति । योगी कोऽर्थः किंगप्ति निर्विकल्प समाधिस्थ इति ।
( प. प्र. टी. १० - पृ ८५ ) शंका:-- आत्मा को कौन जानता है ? समाधान:- योगी जानता है।
का:- बह योगी कैसा है ?
समाधान:-त्रिगुप्ति स्वरुप समाधिमें लीन होनेवाला योगी आत्मा को जानता है ।
अथ समभावस्थितानां योगिनां परमानन्द जनयन् कोऽपि शुद्धाभा स्फुरति तमाह
जो समभाव परिठियहं जोइहं कोई फुरेइ । परमाणंदु जगंतु फुडु सो परमप्पु वेइ ।।
(प.प्र. ६५ )