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________________ सुखामृत वा आस्वाद उस स्वरुप परिणत निविकल्प अपने स्वरुपके ध्याः । कर स्वरुप की प्राप्ति है । आत्मा ध्यानगम्य हो, शास्त्र गम्य नहीं है। क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान की सिद्धि हो जावे, वे ही आत्मा । का अनुभव कर सकते है, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यान से ही पाया है। और शास्त्र सुनना है तो ध्यानका उपाय है ऐसा समझकर अनादि अनंत । चिद्रूप में अपना परिणाम लगाओ | दूसरी जगह भी अन्यथा इत्यादि कहा है। उसका यह मावार्थ है कि, वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही है। नय प्रमाण रुप है तथा ज्ञान की पडिताई कुछ और ही है वह आत्मा निर्विकल्प है नय प्रमाण निक्षेप से रहित है वह परम तत्व को केवल आनंदरूप है और ये लोग अन्यही मार्ग मे लगे हुए है सो वृथा लेश कर रहे है । इस जगह अर्थरुप शद्धात्माही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है। यह सारांश समझना ।। ( परमात्म प्रकाश ) यत्रनेन्द्रिय सुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः । तं आत्मनं मन्यस्य जीवत्वं अन्यस्परमहर ।। २७ ।। जित्थुण इन्बिय-सुह-दुह्ई जित्थु ण मन बावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहं अण्ण परि अवहारु ।। २८ ।। गाथार्थः- जिस शुद्ध आत्म स्वभाव मे आकुलता रहित अतीद्रिय सुख से जो विपरीत जो आकुलता के उत्पन्न करनेवाले इन्द्रिय जनित सुख दुःख नहीं है। जिसमें संकल्प विकल्परुष मन के व्यापार भी नहीं है अर्थात विकल्प रहित परमात्म से मन के व्यापार जुदे है उस पूर्वोक्त लक्षण वालों को हे जीव, तू आत्माराम मान अन्य सब विभाओं को छोड ! टोका:- अनाकुलत्व लक्षण पारमार्थिक सौख्य विपरितान्याकुलस्वोत्पादकानीन्द्रिय सुखदुःखानि यत्र च निर्विकल्प परमात्मनो विलक्षणः संकल्पविकल्परूपो मनो व्यापारो नास्ति । सो अप्पा मुणि जी व तुहं अण्ण परि अबदारु तं पूर्वोक्त लक्षणं स्वशुद्धात्मानं मन्यस्य नित्यानन्दैक रुपं वीतराग निर्विकल्प समाधौ स्थित्वा जानीहि, हे जीव त्वम् अन्यपर. मात्म स्वभावाद्विपरीतं पन्चेन्द्रिय विषय स्वरुपादि विभाव समूह परम्प.
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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