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________________ २१२ अह्वा जइ असमत्यो पुज्जह परमेट्ठिपंचकं । तं पाय खु लोए इषिय फलदायां परमं । माव-संग्रह अथवा यद्यसमर्थः पूजयेत्परमेष्ठिपंचकं चक्रम् | तत्प्रकट खलु लोके इच्छित फलदायक परमन् ॥ ४६२ ।। अर्थ- अथवा जो कोई पुरुष इन मंत्रों के बनाने में वा पूजा अर्चा करने में असमर्थ हो तो उसको पंच परमेष्ठी चक्र की पूजा करनी चाहिये । वह पंच परमेष्ठी चक्र भी इस लोक में सर्वोत्कृष्ट इच्छानुसार फलको देने वाला है । आगे पंच परमेष्ठी चक्र का यन्त्रोद्वार बतलाते है । सिररेह भिष्ण सुष्णं चंदकला विदुएण संजुत्तं । मत्ता हिय उबरगयं सुवेदियं कामबीएण || शिरोरेफभिन्नशून्यं चन्द्रकला विन्दुकेन संयुक्तम् । मात्राधिकोपरिगतं सुवेष्टितं कामवीजेन ॥ ४६३ ।। चामदिसाइणयारं मयार सविसम्म वाहिणे माए । बहि अट्ट पत्र कमलं तिउणं वेढेइ मायाए || वाम दिशायां नकारं मकार सविसर्ग दक्षिणे भागे । बहिष्टपत्रकमलं त्रिगुणं वेष्टयेत् मायया ।। ४६४ ।। पणमंत मुत्तिमे अरहंत पयं बलेसु सेसेसु । धरणीमंडल मझे शाह सुरच्चियं चक्कं ॥ प्रणव इति मतिमेकस्मिन् अर्हत्पदं वयेषु शेषेषु । धरणीमंडलमध्ये ध्यायेत्सुराचितं चक्रम् ।। ४६५ ।। अह एउणवण्णा से कोते काकण विउलरेहाहि । अरोह अक्वराहं क्रमेण विष्णिसहं सवाई || १ बहुत तलाश करने पर भी दक्षिण उत्तर में कही भी इसका यन्त्र नहीं मिला तथा बिना यन्त्र के इन पद्यों का अर्थ भी नहीं लग सका इसके लिये हम क्षमा प्रार्थी है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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