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भाव-संग्रह
कह ही नहीं सकता क्योंकि आहार दान के देने से अपने मन को इन्ह नुसार समस्त उत्तम भोगों को प्राप्ति होती है ।
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दायाशेवि य पत्तं दाण विसेसो तहा विहाणं च । एए चत्र अहियारा णायच्या होति भव्वेण ||
दातापि च पात्रं दानविशेषस्तया विधानं च ! एते चतुरधिकारा ज्ञातव्या भवन्ति भव्येन || ४९४ ।।
अर्थ - भव्य जीवों को सबसे पहले दान देने के चार अधिकार समझ लेने चाहिये । दाता, पात्र, दान देने योग्य द्वय और देने की विधि से चार अधिकार है ।
दान देने वाले को दाता कहते है जिसको दान दिया जाता है वह पात्र कहलाता है, दान में जो द्रव्य दिया जाता है वह दान विशेष है और दान देने के नियमों को विधि कहते हैं ।
वायारो उवर्सतो मणवय कारण संजुओ दच्छो । दाणे कच्छाहो पयड वर छग्गुणो अमये |
दाता उपशान्तो मनीवबल कायेन संयुक्लो दक्षः | दाने कृतोत्साहः प्रकटित बरवगुणः अभय: ।। ४९५ ।।
अर्थ- जो भव्य जीव ज्ञांत परिणामों को धारण करता है, जो
मन वचन काय से दान देने में लगा हो अत्यन्त चतुर हो, दान देने में जिसका उत्साह हो, जो मद वा अभिमान रहित हो और दातां के छह गुणों से सुशोभित हो एसा भव्य जीव दात गिना जाता है ।
भत्ती तुट्ठी य खमा सद्धा सत्तं च लोहपरिचाओ । विणाण तक्काले सत्तगुणा होंति दायरे ||
भक्तिः तुष्टिः क्षमाश्रद्धा सत्यं च लोभपरित्यागः विज्ञानं तत्कालै सप्तगुणाः भवन्ति वातरि ।। ४९६ ।।
अर्थ- जिनको दान देना है उनमें जिसकी भक्ति हो, दान दने में जिसको संतोष हो, क्षमा को धारण करने वाला हो, देव शास्त्र गुरु में