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भाव-संग्रह
ध्यान है । किसी रोग के प्रकोप होने पर उसको दूर करने के लिये बार बार चितवन करना तीसरा आर्तध्यान है और निदान करना चौथा आर्तध्यान कहलाता है।
अदज्माण पउत्तो बंधइ पावं पिरंतरं जीयो । मरिएण य तिरियगई को विणरो जाइ तज्माणे ।। आसध्यान युक्तो बध्नाति पापं निरंतर जीवः । मृत्वा च तिर्यगति कोऽपि नरो यातितयाने ॥ ३६० ।।
अर्थ-. इस जान कर, में पर भी कि पाप कर्मा का बंध करता रहता है । तथा कोई कोई मनुष्य इस आध्यान के कग्ने से लियंच गति को प्राप्त होता है ।
रुई कसाय सहियं जीवो संभवइ हिंसयाणंदं । मोसाणंदं विदियं थेयाणदं पुणो लइयं ।। छद्रं कषाय सहित जीवः संभवति हिंसानन्दम् । मषानन्दं द्वितोयं स्तेयानन्दं पुनस्तृतीयम् ॥ ३६१ ।। हवइ चउत्थं शाणं रुदं गामेण रक्षणाणंदं । अस्स य माहप्पेण य णरयगई भायणो जीवो ।। भवति चतुर्थ ध्यान रौद्रं नाम्ना रक्षणानन्दम् । यस्य च माहात्म्येन नरगतिभाजनो जीवः ।। ३६२ ।।
अर्थ- जिनजीब की पाये अत्यन्त तीव्र होती है उसके रौद्रध्यान होता है। उस रौद्र ध्यान में चार भेद है। हिंसा में आनन्द मानना
१. जिनेज्या पात्रदानादिस्तन कालोचितो विधिः ।
भद्रज्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयात् बुधैः ।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, पात्रदान देना, तथा समयानुसार पूजा और दान की विधि करना भद्रध्यान कहलाना है। एसा ध्यान यथोचित गहस्थ धर्म में ही होता है । इसीलिये विद्वान लोग इस धर्मध्यान कहते है।