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भाव-संग्रह
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हिसानन्द रौद्रध्यान है । झूठ बोलने मे आनंद मानना मृषानंद आर्तध्यान है । चोरी में आनन्द मानना स्तेयानंद नाशक तीसरा आर्तध्यान है । तथा बहुतसे परिग्रह की रक्षा में आनंद मानना रक्षणानंद वा परिग्रहानंद नाम का चौथा आर्तध्यान है। इस रौद्रध्यान का चितवन करने से यह जीव नरक का पात्र होता है ।
गिहवाबाररयाणं गेहोणं इंदियस्थ परि कलियं । अट्टज्झाण जायइ रुद्रं वा मोह छण्णाणं । गृहन्यापार रतानां गेहिनामिन्द्रियार्थ परिकलितम् ।
आतध्यानं जायते शैनं वा मोहच्छन्नानाम् ।। ३६३ ।। अर्थ- जो गृहस्थ घर के व्यापार में लगे रहते है और इन्द्रियों के विषयभूतपदार्थों में संकल्प विकल्प करते रहते है उनके आर्तध्यान होता है तथा जिनके मोहनीय कर्म का तीव्र उदय होता है उनके रौद्रध्यान होता है।
शाणेहि तेहि पाच उप्पण्णं तं खबइ भद्दझाणेण । जीवो उसप जुत्तो देस जई माणसंपण्णो ॥ ध्यान स्तः पापं उत्पन्नं तत्क्षपयति भवघ्यानेन ।
जीवः उपशम युकतो देशयति: ज्ञानसम्पन्नः ।। ३६४ ।।
अर्थ- इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान से जो पाप उत्पन्न होता है उसको यह उपशम परिणामों को धारण करने वाला और सम्यग्ज्ञान का धारण करने वाला देश व्रती श्रावक अपने भद्रध्यान से नाश कर देता है।
आगे भद्रध्यान को कहते है। ...
भहस्स लक्षणं पुण धम्मं चितेइ भोयपरिमुषको । चितिय धम्म सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए ॥ भद्रस्स लक्षणं पुनः धर्म चिन्तयति भोग मरिमुक्तः । चिन्तयित्वा धर्म सेवते पुनरपि भोगान यथेच्छया ।। ३६५ ।।