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________________ १६८ भाव-संग्रह अर्थ- जो जीव भोगों का त्याग करता हम ब. बिन भारता है. और धर्म का चितवन करता हुआ भी फिर भी अपनी इच्छानुसार भौगों का सेवन करता 'उसो भद्रध्यान रामझना चाहिये । भावाश.. भोगों का सेवन करता हुआ भी जो धर्मध्यान धारण करता है जमें भद्र ध्यान समझना चाहिये । आगे धर्मध्यान के भेद बतलाते है। धम्मज्झाणं भणिय आपापायायियाय विचयं च । संठाणं विषयं तह कहिय झाणं समासेण ।। धर्मध्यानं भणितं आज्ञापायविपाकविचयं च । संस्था, बिजयं मा सहित भाग माग !' ३६६ ॥ अर्थ- आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक बिचय और संस्थान विचय ये चार अत्यंत सक्षेप से धर्मध्यान के भेद है। आगे आज्ञावित्रय घHध्यान का स्वरुप कहते है। छहत्वणधपयत्था सत्तवि सच्चाई जिणावरएपण । चिथइ विसय विरत्तो आणा विचयं तु तं भणियं ॥ षड्द्रव्यनवपदार्थान सप्तापि तत्त्वानि जिनवराज्ञया । चिन्तयति विषयविरक्तः आज्ञादिघयं तु तद् भणितम् ।।३६७।। अर्ब- जो मनुष्य इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आज्ञा प्रमाण छह द्रव्य, नौ पदार्थ और मात तत्वों का चितवन करता है उसको आज्ञा विचय नाम का पहला वर्मध्यान कहते है । आग अपाय विचय को कहते है। असुह कम्मात जाणो सुहस्स या हवेइ केणुवाएण । झ्य चितंतस्स हवे अपाय विषय पर झागं ।। अशुभकर्मणः नाशः शुभस्य वा भवति केनोपायेन । एतच्चिन्तयतः भवेदपायविषय पर ध्यानम् ॥ ३६८।। अर्थ- अपाय शब्द का अर्थ नाश है । इन अशुभ कर्मों का नाश
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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