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________________ भाव-संग्रह जोएहि तीहि वियरह अक्खर अत्थेसु तेण सवियारं । पढमं सुक्कझाण अतिक्ख परसोयमं भणियं । योगेस्त्रिभिः विचरति अक्षरार्थेषु तेन सवीचारम् । प्रथमं शुक्लध्यानं अतीक्ष्णपरशूपमं भणितम् || ६४६ ।। अर्थ- जिस ध्यान मे चितवन किये हुए पदार्थ वा उनको करने -- वाले सब्दों का चितवन मन से वचन से काया से वा क्रम में अदल बदल कर किया जाता हो कभी काय से चितवन किया जाता हो तथा काय को छोड़कर मन से वा वचन से चितवन किया जाता हो इस प्रकार जिसमें योग वदलते रहते ही तथा पदार्थ और उनके वाचक शब्द भी बदलते रहते हो उसको पत्रीचर ध्यान कहते हैं। योग पदार्थ और शब्दों का बदलना बीचार कहलाता है । तथा वीचार सहित ध्यान को सवीचार ध्यान कहते है यह ध्यान कर्म रूपी वृक्ष को काटने के लिये विनाधार वाले अतीक्ष्ण कुल्हाडे के समान है जो देर से कर्मों का नाश करता है । जह चिरकालो लग्गड़ अतिक्ख परसेण हकब विच्छेए । तह कम्माण य कृष्णे चिरकालो पढम सुक्कम्मि || यथा चिरकालो लगति अतीक्ष्ण परशूना वृक्षविच्छेदे । तथा कर्मणां च हनने चिरकाल: प्रथम शुक्ले || ६४७ २७५ अर्थ - जिस प्रकार किसी वृक्ष के काटने के लिये कुल्हाडी तीक्ष्ण न हो पत्थरी कुल्हाड़ी हो तो उस वृक्ष के काटने मे बहुत देर लगती है उसी प्रकार इस प्रथम शुक्ल ध्यान में कर्मों का नाश करने मे बहुत देर लगा करती है | खइएण उवसमेण य कस्माणं जं अडब्य परिणामो । सम्हा तं गुणठाणं अव्वणामं तु तं भणियं ॥ क्षपेोपशमेन च कर्मणः यदपूर्वपरिणामः । तस्मात्तद्गुणस्थानं अपूर्वनाम तु तद् भणितम् ॥ ६४८ ।। अर्थ- इस गुण स्थान में कर्मों का क्षय होने पर अथवा कर्मों का
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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