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________________ ६० त्याख्यान कषायों का उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मिक शक्ति कुछ वृद्धि होने के कारण मोक्षमार्ग मे बढ़ने के लिये कदम उठाता है । मोक्ष के साधनभूत सम्पूर्ण व्रतों का पालन करने के लिये आत्मशक्ति नहीं होने के कारण देश व्रतों को धारण कर मन्थरगति से मोक्षमार्ग में बहता है । जो तस बहावो बिरदो अविरदओ तह य यावर दहाओ । एक्क समयम्मि जीओ विरदाबिरदो जिणेक्कमई ।। ३१ ।। ( गो. जी. ) (He) Who vows against the killing of mobilo ( trasa } Souls, and ( is ) vowless as to the killing of immobile (sthavara) souls, and is entirely devoted to the conqueror (Jina ), in yowful and vowless ( Virata -avirata) at one and the same time. पंचम गुणस्थानवर्ती जीव एक ही काल में स वध से विरत होने के कारण एवं स्थावर बघ से अविरत होने के कारण वह विस्ताविरत सार्थक नाम से सहित है । च शब्द से सूचित होता है कि प्रयोजन के बिना स्थावर हिंसा भी नहीं करता है, उसकी श्रद्धान अर्थात रुचि भक्ति जिन भगवान में रहने के कारण वह जिनैकमति होता है, यहाँ से संयम अथवा विरत का प्रारंभ होता है यह आदि दीपक होने के कारण आगे भी गुणस्थान में यह विशेषण जोडना चाहिये । इस गुणस्थान में श्रद्धान रहते हुए भी आत्मा के घातक विषय कषायों से सम्पूर्ण विरत नहीं हो पाता है । अनाद्य विद्या दोषोत्थ चतुः संज्ञाज्वरातुराः शश्वत्स्वज्ञान विमुखः सागारा विषयोन्मुखाः ।। २ ।। ( सागार धर्मामृत ) अनाद्यविद्यानुस्यूत ग्रंथसंज्ञमपासितुम् । अपारयन्तः सागराः प्रायो विषयमूच्छिताः ॥ ३ ॥ ( सागार धर्मामृत ) अनादि कालीन अविद्यारूप दोषों से उत्पन्न होने वाली चारों
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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