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________________ २२२ भात्र--सन पयडिवंधो चणमसरीरेण होइ किंचूणो । उद्धं गमणसहायो समएणिक्केण पाये ।। नाष्टाष्टप्रकृति अन्धश्चरम शरीरेण भवति किचोनः । ऊर्ध्वगमन स्वभाव: समयकेन प्राप्नोति ।। ६८७ ।। अर्थ- चौदहवे गण स्थान के अन्तिम समा मे जब आठों प्रकार का प्रकृतिबंध नष्ट हो जाता है अर्थात समस्त कर्म नष्ट हो जाते है तब उनकी सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है । उस मिद्ध अवस्था में आत्मा का आकार चरम शरीर में कुछ कम होता है । अर्थात् उस आत्मा के आकार का घनफल शरीर के आकार के घनफल से कुछ कम होता है शरीर में जहां जहां आत्मा के प्रदेन नहीं है ऐसे पेट नासिका के छिद्र कान के छिद्र आदि में आत्मा के प्रदेश वहां भी नहीं इसलिय सिद्धों के आत्मा के आकार के घनफले में उत्तने स्थान को घनफल कम हो जाता है। इसलिये चरम शरीर के आहार के घनफल से सिद्धों के आत्मा के आकार का घनफल कुछ कम हो जाता है । इसलिये सिद्धों आकार चरम शरीर से कुछ कम बतलाया है । आत्मा का स्वभाव से ही ऊर्ध्व गमन करता है इसलिय कर्म नष्ट होने के अनन्तर एक ही समय में सिद्ध स्थान पर जाकर बिराजमान हो जाता है । आगे मिद्ध स्थान कहां है सो वतलाते है । लोयग सिहर खते जावं तपवन उर्वरिय भायं । गच्छद ताम अथक्को धम्मस्थितेण आयासो।। लोक शिखर क्षेत्र यायत्तनु पवनो परिमं भागम् । गच्छति तावत् अस्ति धर्मास्तित्व आकाशः ।। ६८८ ।। अर्थ- इस लोक शिखर के ऊपर के क्षेत्र में तनुवातबल्य के ऊपरी भाग पर जहां तक के वे सिद्ध परमेष्ठी एक ही समय में पहुंच जाते है। तत्तोपरंण गमछइ अच्छद कालंदु अम्सपरिहीणं । जम्हा अलोय खिते धम्मव्वं गं तं अस्थि ॥ ततः परं न गच्छति तिष्ठति कालं तु अन्त परिहोनम् । यस्याय लोक क्षेत्र धर्मद्रव्यं न तदस्ति ।। ६८९ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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