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________________ जीवों के कामों के नाश का विचार प.रना अर्थात वर्तमान में इन पा हुए दुःखों से छुटकारा कब मिलेगा इस प्रकार जो विचार करता। उसको अपाय बित्रय नामक धर्मध्यान जानना चाहिय विपाक विचय धर्मध्यान शुद्ध निश्चय नय से यह जीव अशुभ कर्मों के उदय से रहित । तो भी अनादी कमों के बन्ध के वश से पाप के उदय से नारकादि गति में दुःखरूप विषाकरुप फल का अन करता है । और पुण्योदय से देवा गतियो मे सुखरुप बिपाक को भोगता है । उस प्रकार कर्म फल-विवार का विचार करना विपाक विवध धर्मध्यान है । संस्थान विधय धर्मध्यान ऊपर कही हुई जो लोकानुप्रेक्षा का चिंत न करता है वह संस्थानः । विचय नामका धर्मध्यान है । इस प्रकार चार प्रकार का धर्मध्यान होता है । पृथवश्ववितर्क वीचार शुक्ल ध्यान द्रव्य-गुण और पर्याय इनका जो जुदापना है उसको पृथक्त्व कहीं है । निज शद्धात्मा का अनुभव रुप भावत अथवा निज शद्धात्मा को कहनेवाला जो अन्तरंग वचन है वह वितर्क कहते है । निरीवत्ती से अर्थात विना इक्छा किये अपने आप ही जो एक अर्थ से दूसरे अर्थ में एक वचन से दूसरे वचन में और मन-वचन-काय इन तीनों योगों में एक योग से दूसरे योग मे जो परिणमन है उसको वीचार कहते है । त्याम करनेवाला निज सुद्धात्मा के ज्ञान को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिंता नही करता अर्थात निज आत्मा का ध्यान करता है । तथापि जितने अंशों से उसके आत्मा में स्थिरता नहीं है उतने संशों में अनिहित वृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते है इस कारण से इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान कहते है। यह प्रथम शुक्ल ध्यान उपशम श्रेणी की विवक्षा मे अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्म सांपराय उपशमक और उपशान्त मोह इन आठवा-नवमा-दसवा ग्यारहवाँ पर्यंत जो चार गुणस्थान
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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