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________________ हैं उनमें होता है। और क्षपक श्रेणी की विवक्षामें अपूर्वकरण क्षपक, अनिवत्तिकरण क्षपक, और सूक्ष्म सांप राय क्षपक नाम के धारक जो आटवे से दसवे तक तीन गुणस्थान है ! इनमें होता है । एकत्ववितर्क वीचार शुक्लध्यान आत्म द्रव्य म अथवा विकार रहित जो आत्मा का सुख है उससे | अनुभव पर्याय मे अथवा उपाधि रहित निज आत्मा का जो ज्ञात गुण है में उन तीनों मे से जिस एक द्रव्य-गुण या पर्याय में ध्यानी प्रवृत्त हो गया उसं मे वितर्क नामक जो निजात्मानुभव रुप भावश्रुत का बल है। उससे स्थिर होकर जो वीचार अर्थात द्रव्य-गण-पर्याय में परावर्तन करता है वह एकत्व वितर्क बीचार, क्षीण कषायवर्ती गुणस्थान में होनेवाला शुक्लध्यान है। सूक्ष्मनिया प्रतिपाति शुक्लघ्यान __ यह उपचार से सयोग कवली जिन नामक तेरहवें गुणस्थान मे होला है। ध्युपरतक्रिया निवृत्ति-शुक्लध्यान विशेषता करके उपरत अर्थात दूर हुई है क्रिया जिसमे वह व्युपरत किया है । व्युपरत त्रिया हो या अनिवृत्ति अर्थात निवर्तक न हो वह परत क्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान है। और अध्यात्म भाषा से सहज शुद्ध परम चैतन्य से शोभायमान तथा निर्भर आनंद के समूह को धारण करनेवाला जो भगवान निज आत्मा है उसमें उपादेय बुद्धि करके अर्थात निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है एसे बुद्धि को करके फिर जो “ मैं अनंतज्ञान का धारक हूँ, मैं अनंत सुख का धारक हूँ" इत्यादि भावनाको करता है। इस रूप अन्तरंग धर्मध्यान कहा जाता है और पंचपरमेष्ठीयों की भक्ति को आदिसे उसके अनुकल जो शुभ अनुष्ठान का करना है वह बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निज शुद्ध आत्मा में विकल्प रहित ध्यान रुप लक्षण का धारक शुक्लध्यान है। अथवा मत्र वाक्य मेंपंचम काल में क्या भावश्रुतकेवली हो सकते है ?
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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