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भाव - संग्रह
नष्टाष्टकर्मबन्धनजातिजरा मरण विप्रमुक्तेभ्यः । अष्टवरिष्ठ गुणेभ्यो नमो नमः सर्वसिद्धेभ्यः ।। ६९८ ।।
अर्थ - जिनके आठों कर्मों का बंधन नष्ट हो गया है, जन्म मरण बुढापा आदि सांसारिक समस्त दोष जिनके नष्ट हो गये है और कार लिखे सर्व श्रेष्ठ आठ गुण प्रगट हो गये है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को मैं श्री देवगेन आचायें बार बार नमस्कार करता हूँ ।
जिणवर सासण मतुलं जयज चिरं सूरि सपर जबयारी । पाढय सांहूवि तहा जयंतु भव्वा वि भुषणयले ॥
जिनबर शासन मतुलं जयतु चिरं सूरिः स्वपरोपकारी । पाठक: साधु रपि तथा जयन्तु भव्या अपि भुवन तले ।। ६९९ ।।
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अर्थ- संसार में जिसका कोई उपमा नहीं ऐसा यह भगवान जिनेन्द्र देव का कहा हुआ शासन सदाकाल जयशील रहे। इसी प्रकार अपने आत्मा कल्याण करने वाले और अन्य अनेक भव्य जीवों का कल्याण करने वाले आचार्य परमेष्ठी सदा काल जयशील रहे । इसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी तथा साधु परमेष्ठी सदा काल जयवंत रहे तथा तीनों लोकों मे रहने वाले भव्य जीव भी सदा जयवंत रहे ।
जो पद्म सुणइ अक्खड असि भाव संग्रहं सुत्तं । सहण णियय कम्मं कमेण सिद्धालयं जाए ||
यः पठति शृणोति कथयति अन्येषां भाव संग्रह सूत्रम् । सन्ति निजकर्म क्रमेण सिद्धालयं याति ।। ७०० ॥
अर्थ -- इस प्रकार कहे हुए इस भाव संग्रह के सूत्रों को जो पढ़ता हैं सुनता है अथवा अन्य भव्यजीवों को सुनाता है वह पुरुष अनुक्रम से से अपने कर्मों को नाश कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है ।
सिरिबिमलसेज गणहर सिस्सो णामेण देवसेणोति । अह जण बोहणत्थं तेणेंयं विरइयं सुतं ॥