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________________ ८८ भाव-संग्रह सेवन करो । ऐसा करने से कोई किसी को नहीं लगा। । योनि वह जीव ही कोई पदार्थ नहीं है। जो ईदियाई दंड विसया परिहर खवइ णियदेहं । सो अप्पाणं बंचई गहिओ भूएहि पुवुद्धो ॥ १७६ ।। यः इन्द्रियाणि दण्उयति विषयानपरिहरति क्षपति निजवेहम् । स आत्मानं वंचयति गृहीतो भूतैः दुर्बुद्धीः ॥ १७६ ।। अर्थ-- जीव का अभाव सिद्ध कर वह चार्वाक फिर कहता है कि को पुरुष अपनी इन्द्रियों का निग्रह करता है, इन्द्रियों के विषयों के सेबन का त्याग करता है और अपने शरीर को व्यर्थ कृश करता है वह दुर्बुद्धि मुर्ख पुरुष अपने आत्मा को ठगता है । समझना चाहिये की ऐसा पुरुष अनेक पूतों द्वारा घेर रखा है इसलिये वह मुखों का अनुमंत्र नहीं करता । लिखा भी है - यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । _____मस्मीभूतस्य कायस्य पुनरागमनं कुतः ।। अर्थात्- जबतक जीओ तव तक सुख पूर्वक जीओ। ऋण करके भी प्रतिदिन घी दूध पीओ। क्योंकि मरने पर यह पत्र भूत से बना हुआ गरीर भस्म हो जाता है । जीव कोई पदार्थ है नहीं फिर भला आवागमन कंगे हो सकता है, अर्थात नही । बिना आवागमन के नरक आदिक को प्राप्ति भी कभी नहीं हो सकती । ऐसा चार्वाक मानता है। परंतु उसका यह कहमा मर्वथा मिथ्या है । पंचभूत अचेतन है वे जीव के उपादान कारण नहीं हो सकते । गोवर में बीछू उत्पन्न हो जाते है परंतु गोबर उन जीवोंका उपादान कारण नही है, भरार का उपादान कारण है। इसके सिवाय मै सुखी हूँ ऐसा स्वसंवेदन समस्त जीवों को होता है। इससे भी जीव की सिद्धो अवश्य होती है। देखो इस शरीर में जबतक जोव रहता है तबतक ही शरीर की वृद्धी होती रहती है । जीव के निकल जाने पर फिर शरीर कभी नहीं बढ़ता है। इससे भी जीव की सिद्धि माननी पड़ती है । इस शरीर में जब तक जीव रहता है तबतक ही बह गमनागमन करता रहता है, जीव के निकल
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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