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________________ १६० श्रेणी आरोहणकारी जीव आत्मिक विशेष विशुद्धि रो राग को कर्षण करता हुआ जिस समय में सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त मूक्ष्मलोभ को बेदन करता है, उस समयमें वह सूक्ष्मसापराय गुणस्थानवर्ती होता है । जैसे कुसुम के रंग से रंगा हुआ वस्त्र सम्यक रूपसे बार बार धोनेपर बहुत कुछ निकल कर सूक्ष्म लाल वर्ण से युक्त होता है। उपशान्त मोह गुणस्थान कवकफन मुबदल वा सरए सरवाणिय व जिम्मलए । सयलो वसंत मोहो उपसंत कसायओ होधि ॥ ६१ ।। । गो. जी. | पृ. १२६ )। जैसे कनकफल के चूर्ण से युक्त जल निर्मल होता है अथवा मेघपदलसे रहित शरद ऋतु में जैसे सरोवर का जल ऊपर से निर्मल रहता है, वैसे ही पूर्ण रूपसे मोह को उपशांत करनेवाला उपशांत कषाय होता है । जिस ने कषाय नोकषायों को उपशान्त अर्थात् पूर्ण रूप से उदय के अयोग्य कर दिया हैं वह उपशान्त मोह गुणस्थानवर्ती होता है। क्षीणमोह गणस्थान हिस्सेस खीणमोही फलिहाभल भायणुवय सचित्तो। खीण कसाओ भण्णादि णिग्गयो वीयराहि ॥ १२ ॥ ( गो. जी. | पृष्ठ १२७ ) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक अन्तिम समय मे चारित्र मोह की प्रकृति स्थिति. अनुभाग, और प्रदेशोंका बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता के व्युच्छित्ति होने पर उसके अनतर समय में चारित्र मोहका भी पुण रूपसे विनाश होने पर जीव क्षीण कषाय होता है । उसका चित्र अर्थात भावमन विशुद्ध परिणाम अतिनिर्मल स्फटिक मात्र में भरे निर्मल जल के समान होता है । अर्थात जेसे वह जल कलुषित नही होता है, उसी प्रकार यथाख्यात चरित्र से पवित्र क्षीण कषाय का विशुद्ध परिणाम भी किसी कारण से कलुषित नहीं होता है। वहीं परमार्थ निग्रन्थ है क्यों कि उसके कोई भी अंतरंग और बहिरंग परिग्रह नहीं होता है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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