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________________ १६९ इस गुपस्थान में द्वितीय एकत्व वितर्क विचार ध्यान होता है । जीधन मुक्त सकल परमात्मा केवलणाण दिवायर किरणकलापबप्पमासिय ण्णाणो। णव केवल लटुग्गम सुभणिय परमप्प ववएसो ॥ ६३ ।। ( गो. जी. । पृष्ट १२८ ) जिनने केवलज्ञान रूपी सूर्य के किरण समहरूप जो पदार्थो को प्रकाशित करने में प्रविण दिव्यध्वनि के विशेष उनके द्वारा, शिष्य जनों का अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया है । इससे सयोग केवली भगवान के भव्य जीवों का उपहार करने रूप परमार्थ पदार्थ सम्पदा कही है। तथा क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवल दर्शन, दान. लाभ, भोग, उपभोग,वीर्य इन नौ केवल लब्धियोंके प्रकट होने में जिन्हों ने वास्तव में परमात्मा नाम को प्राप्त किया है। इस से भगवान् अर्हन्त परमेष्ठि के अनन्त ज्ञानादि रूप स्वार्थ सम्पदा दिखायी है । शैलेश अयोगी जिन-- सीलोरी संपत्ती, गिद्ध णिस्सेस आसयो जीवो । कम्मरय विप्पमुक्को गथजोगो केवली होदि ।। ६५ ।। जो अठारह हजार शीलों के स्वामी पने को प्राप्त है, समस्त आस्रवों के रूक जाने से जो नवीन बध्यमान कर्म रज से सर्वथा सहित है। तथा मनोयोग-वचनयोन-और काय योग से रहित होने से अयोग जिन है। इस तरह जिनके योग नहीं है। तथा केवलि भी है वे अयोग कैवली भगवान् परमेष्ठि है। हरहंत का विशेष वर्णन--- पुण्ण कला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया । मोहाक्षहि बिरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥ ४५ ॥ ( प्रवचन सा. । पृष्ठ १०४ )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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