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________________ भाव-संग्रह अर्थ- यह शरीर आहार मय है अन्न का कीडा है । यदि इसको आहार न मिले तो नियम से शिथिल होकर गिर पडता है । इस लिये जिसने ऐसे शरीर के लिये आहार दिया उसने उस शरीर को ही दिया ऐसा समझना चाहिये । २३० ता देहो ता पाणा ता रुवं साम णाण विष्णाणं । जामा हारो पविसs देहे जीवाण क्यरो ॥ तावद्देहस्तावत्प्राण स्तावद्रूपं तावद्ज्ञान विज्ञानम् । यावदाहारो प्रविशति देहे जीवानां सुखकरः ।। ५२० ।। अर्थ - इस संसार मे जब तक जीवों को सुख देने वाला आहार इस शरीर में रहता है तब तक ही यह शरीर है तब तक ही प्राण रहते है तबतक ही रूप रहता है, तबतक ही ज्ञान रहता है और तब तक हो विज्ञान रहता है। बिना आहार के ये सब नष्ट हो जाते है । है । आहारसणे वेहो देहेण तवो तवेण रय सडणं । रय शालेण य णाणं णाणे मुक्खो जिणोभणई || आहाराशने देहो बेहन तपस्तपसा रजः सटनम् । रजोनाशेन च ज्ञानं ज्ञाने मोक्षो जिनो भणति ।। ५२१ ।। अर्थ - आहार ग्रहण करने से शरीर की स्थिति रहती है, शरीर की स्थिती रहने से तपश्चरण होता है, तपश्चरण से ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मों का नाश होता है, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मों के नाश होने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान की प्राप्ति होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । आगे आहारदान से चारों दानों का फल मिलता है ऐसा कहते चविषाणं उत्तं जे तं सयलमवि होइ इह विष्णं । सविसेस दिष्णेय इक्केणाहारवाणेण || चतुविधवानं उक्तं यत् तत् सकलमपि भवति इह दत्तम् । सविशेषं दत्तेन च एकेनाहार वानेन ।। ५२२ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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