SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-संग्रह देहस्थो ध्यायते देह सम्बन्ध विरहितो नित्यम् । निर्मल तेजसा स्फुरन गगनतले सूर्य बिम्ब इव ।। ६२१ ।। जोब प्रदेश प्रचयं पुरुषाकारं हि निज देहस्थम् । अमल गुणं ध्यानम् ध्यानं पिण्डस्थामिधानम् ।। ६२२ ।। अर्थ- बह अपना शुद्ध आत्मा अपने शरीर में विराजमान है नयानि उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह आत्मा अत्यंत निर्मल है और जिस प्रकार आकाश में सूर्य दैदीप्यमान होता है उसी प्रकार बद आत्मा भी अपने तेज मे दैदीप्यमान हो रहा है उस आत्मा के प्रदेशों का प्रलय वा समूह पुरुषाकार है वह प्रदेशों का समूह अपने ही शरीर में ठहरा हुआ है और उसमे अनेक निर्मल गुण भरे हुए है। इस प्रकार जो शरीर में स्थित अपने आत्मा का ध्यान किया जाता है उसको पिडम्थ ध्यान कहते है। आगे पस्थ ध्यान का स्वरुप कहते है । यारिसओ देहत्थो झाइज्जइ देह बाहिरे तह य । अप्पा सुद्ध सहायो तं रुवत्थं फुडं प्राणं ।। यादृशो देहस्थो ध्यायते देह वाही तथा परगतं च । आत्मा शुद्धस्वभावस्त रुपस्थं स्फुटं ध्यानम् ।। ६२३ ।। अर्थ- ऊपर लिग्ने पिस्थ ध्यान मे अपने ही शरीर में स्थित अपने ही शुद्ध निर्मल और अत्यन्त दैदीप्यमान आत्मा का ध्यान करना बतलाया है उसी प्रकार शरीर के बाहर अपने ही शुद्ध निर्मल अत्यन्त दैदीप्यमान और शुद्ध स्वभाब आत्मा का ध्यान करता रुपस्थ ध्यान कहलाता है। रूवत्थं पुण बुविहं सगर्य तह परगयं च जायस्वं । संपरगयं भणिज्जइ झाइज्जइ जत्थ पंच परमेठठी ।। रूपस्थं पुनः द्विविध स्वागत तथा परगतं च ज्ञातव्यम् । तत्परगतं भव्यते ध्यायते यत्र पंच परमेष्ठी ।। ३२४ ।। अर्थ- इस रूपस्थ झ्याल के दो भेद है एक स्वागत आत्मा का
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy