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भा-सए?
ध्यान और दुसरा परगत आत्मा का ध्यान । जहां पर पंच परमेष्टों का ध्यान किया जाता है उस ध्यान' को परगत रूप ध्यान कहते है । पंच परमेष्ठी का आत्मा अत्यंत शुद्ध है परन्तु वह अपने आत्मा मि है इसलियं उसको परगत रूपस्थ ध्यान कहते है।
सगयं तं स्वस्थं झाइज्जई जाथ अप्पणो अप्पा । णियवेहस्स बहित्थो फुरंत रवितेय संकासो ।। स्वगतं तु रुपस्थं ध्यायते यत्र आत्मना आत्मा । निज देहाढहिःस्थः स्फुरद् रवितेजः संकाशः ।। ६२ ।।
अर्थ- जो अपना आत्मा सूर्य के तेज के समान अत्यन्त देदीप्यमान है अत्यंत शुद्ध है निर्मल है ऐसा अपना आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा अपने शरीर के बाहर ध्यान किया जाता है उसको स्वागत रूपस्य ध्यान कहते है। इस प्रकार रुपस्थ ध्यान का स्वगत स्वरूप कहीं ।
अब आगे पदस्थ ध्यान को बाहते है । देवच्चणा बिहाणं जं कहिय तं देसविरयठाणम्म । होइ पयस्थं झाणं कहियं सं बरजिणंर्दोह ।। देवार्चना विधानं यत्कथित देश विरत स्थाने । भवति पदस्थं ध्यानं कथितं तवरजिनेन्द्रः ।। ६२६ ।।
अर्थ- पहले देश विरत वा विरता विरत गण स्थान के स्वरूप में जो भावना जिनेन्द्रदेव की पुजन करना समवसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्य सहित अनन्त चतुष्टय सहित भगवान अरहंत परमेष्ठी का ध्यान करना आदि बतलाया है वह सव पदस्थ ध्यान है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है ।
एक पय मक्खरं वा अवियह जं पंचगुरुवसंबंध । तं पिय होइ पयस्थ झाणं कम्माण णिहहणं ।। एक पद मक्षरं वा जाप्यते यत्पंच गुरु सम्बन्धम् । तदपि च भवति पदस्थं ध्यान कर्मणां निर्वहनम् ।। ६२७ ।। अर्थ- पंच परमेष्ठी के बाचक एक पद के मन्त्र का जप करना