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भाव-सरह
अर्थ- तेरहवे गुण स्थान के अनन्तर चौदहवां गुण स्थान होता है। चौदहवे गुण स्थान का नाम अयोगी बबली है । धातिया कर्मों का नाश कर भगवान तेरहवें सयोगी केवली गुण स्थान मे आते है और चौदहव गण स्थान मे आकर अन्त में अघातिय कर्मों का नाश कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । इस गुण स्थान का काल लघु पंचाक्षर उच्चा. रण मात्र है अर्थात् जितनी देर में अ इ 3 ऋ लु इन पांचों हस्त्र अक्षरों का उच्चारण होता है उतना काल इस चौदहवे गण स्थान का काल ।
परमोदालिय कार्य सिद्धिलं होऊण मलइ तक्काले । थक्कइ सुद्ध सुहावो धण णिविड पएस परमप्पा || परमोडारिक काय: शिथिलो भूत्वा गलति तत्काल । तिष्ठति शुद्ध स्वभावः धननिधिडप्रवेश परमात्मा ||६८०॥
अर्थ- इस गुण स्थान के अन्त मे उनका बह परमौदारिक शरीर शिथिल होकर गल जाता है 1 तथा उनके धनीभूत निविड आत्मा के प्रदेश शुद्ध स्वभाव रूप होकर रह जाते है और इस प्रकार वे भगवान परमात्मा हो जाते है।
णटा किरिय पवित्ती सुक्कज्माणं च सत्य णिविद् । स्खाइय भावो सुनो णिरंजणो बीयराओ य नाटा क्रिया प्रवृत्तिः शुक्ल ध्यानं च तत्र निदिष्टम् ।
क्षायिको भावः शुद्धो निरंजनो वीतरागाच ॥ ६८१ ।।
अर्थ- इस गुण स्थान मे समस्त क्रियाओं की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है, तथा चौथा व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम का शुक्ल ध्यान होता
कबाट रूप, सातवे समय मे दंड रूप और आठवे समय मे शरीर मात्र प्रदेश कर लेते है । प्रदेशों के फैलाव से नाम गोत्र वेदनीय कर्मों की स्थिति आयु की स्थिति के समान हो जाती है । जिन मुनियों के छह महीने की आयु शेष रहने पर केवल ज्ञान होता है उनको समुद्घात अवश्य करना पड़ता है ।