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________________ २८८ भाव-संग्रह कर्म की स्थिति आयु कर्म के समान होती है वे वली समुद्धात नहीं करते तथा जिनके नाम गोत्र वेदनीय की स्थिति आयु कम से अधिक होती है वे केवली भगवान नाम गोत्र वेदनीय कर्मों की स्थिति को आय कर्म की स्थिति के समान करने के लिय रामुद्धात करते है । अंतर महत्त कालो हवह जहण्णो वि उत्तनो तेसि । गयवरिसूणा कोडी पुदवाणं हवइ णियमेण ।। अन्तर्मुहर्त कालो भवति जधयोपि उत्तमः तेषाम् । गत वर्षोंनो कोटि: पूर्वाणां भवति नियमेन ।। ६७८ ।। अर्थ- इस तेरहवें गुण स्थान की स्थिति जघन्य अंतर्मुहर्त है और उत्कृष्ट स्थिति जितने वर्ष की आयु में केवल ज्ञान हुआ है उतने वप कम एक करोड पूर्व है । इस प्रकार तेरहवे गुण स्थान का स्वरूप कहा आगे अयोगी केवली नाम के चौदहवें गुण स्थान का स्वरूप कहते है। पच्छा अजोइकेलि हबई जिणो अघाइ कम्महणमाणो । लहु पंचवखर कालो हवाइ फुछ तम्मि गुण ठाणे ।। पश्चावयोग केवलो भवति जिन: अघाति कर्मणां हन्ता। लघुपंचाक्षर कालो भवति स्फुट तस्मिन् गुणस्थाने ।। ६७९ ।। * मलसरीग्मछंडिय उत्सरदेहम्स जीव पिडम्स । _णिग्गमणं देहादी दृषइ समग्धाइयं णाम ।। अर्थ- मूल शरीर को न छोड कर जो जीब के प्रदेश वाहर निकलते है उसको समुद्धात करते है । समुद्धात करते समय के वली भगवान पहले समय में आत्मा के प्रदेशों को दंडाकार लोक पर्यन्त फैलाते है, दूसरे समय में कपाट रूप चौडाई मे लोक पर्यन्त फैलाते है, तीसरे समय में प्रतर रूप लम्बाई में लोक पर्यन्त फैलाते है चौथे समय मे लोक पूरण कर लेते है पांचवे समय मे संकुचित कर प्रतर रूप छठे समय में
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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