________________
११८
भाव-सग्रह
में संचित हुए पापों को कैसे दूर कर सकते हैं ? अर्थात् कभी दूर नही कर सकते।
आग आचार्य इसी बात को और दिखलाते है । जो ण तरइ णियपावं गहियवओ अप्पणस्स फेडेउं । असमत्थो सो णूणं कत्तित्त विणामणे रुद्दी ॥ २५२ ।। यो न शक्रोति निजपापं गृहीतततः आत्मन: स्फोटयितुं । असमर्थः स नूनं कर्तृत्वविनाशने रुद्रः ।। २५२ ॥
अर्थ- जो महादेव व्रतों को ग्रहण करके भी अपने आत्मा के भी अपने पापा का नाश नहीं कर सकता वह महादेव इस ब्रह्मा के वनाय हुए लोक का विनाश भी नहीं कर सकता । इमलिये निश्चित सिद्धांत यह है कि
णो वभा कुणइ जयं किम्हो ण धरेइ हरद्द ग उ रुद्दो । एसो सहावसिद्धो णिश्चो दस्वेहि संछण्णो || २५३ ।। न ब्रम्हा करोति जगत् कृष्णः न धरति हरति न च रद्रः ।
एषः स्वभावसिद्धः नित्यः द्रव्यः संछन्नः ।। २५३ ।। अर्थ- न तो इस जगत् को ब्रम्हाने बनाया है, न कृष्ण वा विष्ण इसको धारण करता है और न महादेव इसका मंहार करले। यह जगत् स्वभाव से ही सिद्ध है, अनादि है, और अनिधन है तथा जिवादिक द्रव्यों में भाग हआ है।
भमइ जग्गउ भमइ णग्गज वसहि सुमसाणि । पर रुंडसिर मंडयउ गरकवालि भिक्खाई भुंजेइ । सह कारिउ गरियहिदुक्खभाल अप्पहो णिउज्जइ । जो घणेहं सिर कमले खुडिए न फेडइ दोसु । सो इसरू कह अवहरइ तिवणु करइ असेसु ॥ २५४ ।। भ्रमति नगे अमति नगे वर्गात श्मशाने । नररुण्डशिरोमण्डितः नरमपाले भिक्षा भुनिक्ति ।।