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जीव विपरीत दर्शन अर्थात् अतस्य श्रद्धा से युक्त होता है । वह न केवल अतत्व की ही श्रद्धा करता है, अपितु अनेकान्तात्मक धर्म, बस्तु स्वभात्र, मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रयात्मक धर्म को भी पसन्द नहीं करता ।
दृष्टांत :- पित्त ज्वर मे ग्रस्त व्यक्ति मीठे दुध रसादि को पसन्द नहीं करता, उसी तरह मिथ्या दृष्टि को धर्म नहीं रुचता है । इंदिव विसय सुहादिसु मूढमवी रमदि न लहदि तच्छ । बहुबुक्समिवि प चितदि सो चेव हवदि बहिरप्पा ।।१२९॥
(रयणसार) जो मूढमति इन्द्रियजनित मुख में रमण करता हुआ उसको सुख मानता है, यहृदुःखप्रद नहीं मानता है, वह आत्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है।
पूर्व सचित मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो स्वयंमेव विपरीत भाव होता है उने निसर्ग व अगृहीत मिथ्या दृष्टि कहते है। जो कुगर के उपदेश मे विपरीत भाव होते है उसे अधिगमज व गृहीत मिथ्याष्टि कहते है । मिथ्यात्व के कारण जीव अवस्तु मे वस्तु भाव, अधर्म में घमभाव, कुगुरु में गुरु भाव, कुशास्त्र में सुशास्त्र भाव, धारण करता है। वरात्मा केवल शरीर पोषण करता है, अतिन्त्रिय आत्मोत्य सुख से बहिर्मुख होकर विषयसुख में ही लीन रहता है । बाह्य-भौतिक हानी-वृद्धि में अपनी हानी-वृद्धि मानकर सुखी दुःखी होता है। सामान्य मे मिथ्यात्व एक प्रकार होते हुए भी विशेष अपेक्षा अर्थात् द्रव्य-भाव में दो प्रकार एकान्त, विपरीत, संशय, विनय, अज्ञान की अपेक्षा ५ प्रकार भी होता है । इनमें सांख्य-चार्वाक मत मिलाने से ७ प्रकार का मिथ्याल होता है। विशेष रुप से क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और वैयनिकवादियों के ३२ इस
णमो आप्त परमेठ्ठीणं णमो णिस्कम्माणं पमो साधयाणं । णमो रयणतयाणं णमो लोये सम्ब देवाणं ।। ३ ।। मंगल भयवचो पारस मंगलं आइरिय वोरो। मंगलं संति कुंयुध मंगलं सिरि जिण धम्मो ।। ४ ।।