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________________ मिच्छादिट्ठी मिथ्यादृष्टिरिति । मुणेदब्बो ज्ञातव्यः । महति कुंछे स्थित बव्हपिपयो यथा विष कणि का दूषयति । एवम श्रद्धानकणिका मलिन यत्यात्मनमिति भावः । श्रुत मे कहा गया है कि एक पद का अर्थ अथवा एक अक्षर का भी अर्थ जो प्रमाणभूत मानला श्रद्धा नहीं करता है वह बाकी के श्रुतार्थ को या अश्रुतांश को प्रमाण जानता हुआ भी मिथ्यादृष्टी ही है। बड़े पात्र में रक्खे हुए वहुत दूध को भी छोटी सी विषकणिका बिगाड़ती है । इसी सरह अश्रद्धा का छोटा सा अंश भी आत्मा को मलीन करता मबि सुबणाण बलेण दु सच्छंद बोल्लेदे जिद्दिछ । जो सो होवि कुदिछी ण होवि जिण मग लग्गखो ॥ २ ॥ ( रयणसार कुदकुंदाचार्य । जो मतिज्ञान-श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम से प्राप्त हुए मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के कारण उद्धत होकर स्वयं के मनमाने ज्ञान द्वारा अपने मत अर्थात पक्ष को लेकर स्वच्छंद होकर कपोल कल्पित मत का प्रतिपादन करते हैं, जिनवाणी को नहीं मानते है वे मिथ्यादृष्टी अज्ञानी जिन धर्म से वाह्य है। यदि जिनागम को दिखाने पर यथार्थ वस्तु का श्रद्धान करने लगता है और पूर्व कल्पित मत-पेक्ष का त्याग करता है वह सम्यग्दष्टी बन जाता है । अन्यथा मिथ्यादष्टी रहता है। मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीय वंसणो होदि । ण य धम्म रोचेदि ह महुरं ख रसं जहा जरिदो ।। १७ ।। ( मोम्ममसार जीवकांड ) मिथ्यात्वं उदयागतं वेदमन्-अनुभवन् जीवा विपरीत दर्शनः अतत्व श्रद्धा य तो भवति न केवलं अतत्वमेव श्रद्धदत्ते अनेकांतात्मकं कर्म वस्तुग्वभावं रत्नत्रयात्मक मोक्षकारणभूत धर्म न रोचते ( नाभ्युगच्छति ) अत्र दृष्टांतमाह-यथाज्वरित: पित्तज्वराकान्हो, मधुर-क्षीरादिरसं न रोचते तथा मिथ्यादृष्टीधर्मं न रोचते इत्यर्थः ।। १७ ।। उदय में आये मिथ्यात्व का वेदन अर्थात् अनुभवन करने वाला
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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