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________________ (६) सद्दृष्टि जनः पुनरभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प फलस्थानीयं निश्कप्रनयमाश्रित्य शुद्धात्मामनुभवतीत्यर्थः । स. सा. जयसेनाचार्यं स वृ./ गा. ११ सम्यग्दृष्टि जीव पुन अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि बल से स्थानीय निश्चयनय का आश्रय लेकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है । निश्चयनय किसके लिये सुद्धा सुद्धादेसी गायको परमभाव दरिमीहि । ववहार देसिदो पुण जे दु अपरमे द्विदाभावे । समाधबलेन स. सा. ग. १२ भूतार्थी निश्चयनयो निकल्पसमाधितवानां प्रयोजवान् भवति । किन्तु निर्विकल्प समाधि रहितानां पुनः षोडशवणिका सुवर्णलाभावाने अधस्तन वणिका सुवर्णलाभ त्वां चिन्प्राथमिकानां कदाचित् सविकल्पावस्थायां मिध्यात्व विषय कषाय दुष्यनवचनार्थ व्यवहार नयोषि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति तात्पर्य वृत्ति सुद्ध शुद्धनय निश्चग्नयः कथंभूत सुद्धादेसो मुद्रव्यस्या देश कथनं यत्र स भवति शुद्धादेशः । णादस्त्री सातव्यः भावयितव्यः केः परमभावदरसं हि शुद्धात्म गावदर्शिभिः । कस्मादिति चेत् यतः षोडशवर्णकाकार्तस्वराभवेद भेदत्रय स्वरुप समाधिकाले प्रयोजनो भवति । निःप्रयोजनो न भवतीत्यर्थः । ववहार देसिदो व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्याणि दक्षितः कथित इति व्यवहार देणिती व्यवहार नयः पुनः पुनः अधरान वणिक सुवणं लाभवन्प्रयोजनवान् भवति। केषा जे ये पुरुषा दु पुन अपमद्धे असंवत सम्यदृष्टयपक्षया श्रावकाक्षया वा सराग सम्यादृष्टि लगे शुभोपयोग प्रमत्ताप्रमत संयतापक्षयाच भंद्र रत्नत्रय लक्षणे वा स्थिताः कस्मिन स्थिता ? भग्वे जीव पदार्थों तेषामिति माषार्थ । - स. पा. तात्पर्यवृत्ति गा. १२ " शुद्ध निषेचनय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है, वह परम मुद्धात्मा की भावना में लगे हुये पुरुषों के द्वारा अंगिकार करने योग्य है । परन्तु जां पुरुष अशुद्ध व नीचे क अवस्था में स्थित है । इनके लिये व्यवहार नय हो कार्यकारी है अर्थात उपाय है । निश्वं नय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है वह शुद्धता को शान हुये आत्मदर्शियों के द्वारा जानने-भावने अमांत अनुभव करने योग्य
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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