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________________ संसारको जितने वाले जिनेन्द्र देव की द्रव्य और भाव से पूजा । करने वाले पुरुष को यह लोक परलोक में कोई भी श्रेष्ठ वस्तु पाना दुर्लभ नहीं है । "सुद परिचिदाणु सूदा सवस्स वि काम भोग बन्ध कहा'' काम भोग बन्ध को कथा इस जीव ने सुना, परिचय लिया, अनुभव लिया, रचा, पथा उसमें ही लीन रहा इसिलिये मन उसके ओर ही दौडता है । उस अत्यन्त चंचल अशुभ मान को आत्मा की ओर परिवर्तन करने के लिये प्रशस्त द्रव्यों का अवलम्बन चाहिये । जिस प्रकार बच्चे व बन्दर मनमोहकारी वस्तु को प्राप्तकर उसमें रमायमान हो जाते है उसी प्रकार मन भी उत्तम देव, शास्त्र, मुरु एवं उनकी प्रतिकृति (मूर्ती) सुन्दर, सरस, सुगन्धित, प्रशस्त पूजा द्रव्यों के माध्यम से धर्म में रमायमान होता है । यह श्रावक अवस्था से अवलम्बन भूत है । जब श्रावक दृढ़ होकर मुनि हो जाता है तब उस वाह्य पूजा द्रव्य की विशेष आवश्यकता नहीं रहती है जब तक श्रावक है तब तक द्रव्य पूर्वक भाव पूजन करना अनिवाय है ऐसा जिनाज्ञा है। उच्चारिऊण मंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स । गोर धय खीर दहियं खिवउ अणुक्कमेण जिण सोसे ॥ ४४१ ।। ( भावसंग्रह) पहवणं काऊण पुणो अमलं गंधोक्यं च वंदिता। सव लहणं च जिणिवे कुणउ कस्सीर मलएहि ।। ४४२ ।। ( भावसंग्रह) अभिषेक के श्लोक और उनके मंत्र बोलकर जिन प्रतिमा का मस्तक से पानी, घी, दूध, दही से अनुक्रम से अभिषेक करें, अभिषेक के - अधम्म - अमुत्त णिच्चसुद्धं लोयायासं प्पमाणं द्विवं । विल्छी परिणयाणं जीव रुवोणं छिदि णिमित्तमधम्म || २९ ।। - आगास - अमुत्त णिच्च सुद्धं सब्ध वापि महायादन्वं । सग पर ओगास वाणं आगास दग्याणं धम्म ।। ३० ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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