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महज परमान देक वा बन्य समयस्य प्रतिबद्ध आधीनः सन् णय पक्व परिहीणो सतत समल्ल मन के गुलज्ञानरुपतया श्रुत ज्ञानावरणीय क्षयोपशम जनित विकल्प जाल रूपान्नमय पश्चपाताद् दूरीभूतत्वात् ण दु णय पयखं गिण्हदि किषि बि न तु नय पक्ष विकल्पं किमप्यात्म रूप तया गृण्हाति तथायं गणधर देवादि उद्भस्थ जनोपि नयद्वयोक्तं वस्तु स्वरूपं जानाति तथापि नबरि ओवलं चिदानंदैव स्वभावस्य समयस्य प्रबिद्धत आधीनः सन् श्रुत ज्ञानाबरगीय क्षयोपशम जनित विकल्प जालरूपान्नय वय पक्षपातात शुद्ध निश्चय न दूरीभूत त्वान्नय पक्षपात रूपं स्वीकार विकल्पं मिविकल्प समाधिकाले शुद्धात्म स्वरुषतया न गुण्हाति । अथं शुद्ध पारिणामिक परम भाव ग्राहकेण शुद्धद्रव्याथिक नयेन नय विकल्प स्वरूप समस्त पक्षातिकांत समारे इये। यिति ।
( श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य वृत्तिः ) दोण्हवि णयाण भणिय जाणइ' जो कोई नयों के पक्षपात से दूर स्वसवेदन ज्ञानी है वह बद्ध अबद्ध मूद अमूद आदि नय के विकल्पों से रहित चिदानंदमयी एक स्वभाव को उसी प्रकार जानता है जैसा भगवान केवली. निश्चय नय तथा व्यवहार नय के विषय द्रव्य पर्वाय रूप अर्थ को जानते है । ' णवरि तु समय पडिबद्धों' किंतु सहज परमानंद स्वभाव जो शुद्धात्मा उसके आधीन होते हुए केवली भगवान् ( नय पाख परिहीणो) निरन्तर केवल ज्ञान के रुप में वर्तमान होने से श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले विकल्प जाल रूप जो निश्चय नय और व्यवहार नय उन दोनो नयों के पक्षपात से रहित होने के कारण ( ण दु नय पक्खं गिण्हदि किचिवी ) किसी भी नय के पक्षरूप विकल्प को कभी स्विकार नहीं करते अर्थात् उम छूते नहीं है । वैसे ही गणधर देव आदि छयस्थ महर्षि लोम भी दोनों नयों के द्वारा बताये हुए वस्तु के स्वरूप को जानते अवश्य है फिर भी चिदानंदेक स्वभाव रूप. शुद्धास्मा के आधीन होते हुए अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करने में लीन होते हुए श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विकल्पों का जाल हेप जी दोनों नयों का पक्षपात उस से शुद्ध निश्चय के द्वारा दूर होकर मय के पक्षपात रूप विकल्प को निर्विकल्प समाधिकाल मे अपने आत्म रूप से ग्रहण नहीं करते है ।