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________________ इस से सिद्ध होता है कि निश्चय नय का अवलम्बन ध्यानावस्था में स्थित अप्रमत्तादि गुणस्थान वर्ती महामुनि के लिये है जब तक बह अवस्था प्राप्त नहीं होती है तब तक उस अवस्था को प्राप्त करने के लिने व्यबहार नय आवश्यक है । व्यबहार रनत्रयका प्रतिपादवा व्यवहार नय है एवं निश्चय रत्नत्रय का प्रतिपादक निश्चय नय है । व्यवहारोड सकल्पना निवृत्यर्थ सद्रत्नत्रय सिध्यर्थच । सदरत्नत्रयेण तु परमार्थ सिद्धिः । ( श्रुतभवन दीपक नपचक्र ) व्यबहार से अमकाल्पना की निवृत्ति होती है एवं सद् रत्नश्य की सिद्धि होती है। स्वभाव सिद्धस्य परमार्थस्य कथं तेन सिद्धिरिति वक्तव्यं । सद् रत्नत्रयात्सर्वथा भेदे निश्चय भावः । सर्वथात्वादभेद व्यवहारो मा अदिति कथंचिद् भेदेन तेन सिद्ध इति वचन । ( श्रुतमवन दीपक नयचक्र) शंका :- स्वभावसिद्ध परमार्थ की सिद्धि व्यवहार से कैसे हो सकती है ? समाधान :- व्यवहार का सदरत्नत्रय से सर्वथा भेद मानने पर निश्चय का भी अभाव हो जायेगा, तथा सर्वथा भेद को मानने पर अभेद का व्यवहार भी नहीं हो सकेगा, अत: कञ्चित् भेद मानने पर हो उसकी सिद्धि होती है - ऐसा आचार्यों का वचन है । एबमात्मा यावद् व्यवहार निश्चयाभ्यां तत्त्वनुभवति तावत्परोक्षानूभुति । प्रत्यक्षानुभुतिनय पक्षातीता । ( श्रुतभवन दीपक नयचक्र ) जब तक अह आत्मा व्यवहार और निश्मय इन नयों के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है, तब तक परोक्षानुभूति रहती है, प्रत्यक्षानुभूति नय पक्षातीत है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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