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जो अनंत ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ हैं वे ही वस्तु को पूर्ण यथार्थ रूप से जान सकते हैं अन्य कोई असर्वज्ञ नहीं जान सकते हैं। सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान सम्यग्ज्ञान होनेरो वस्तु जैसी है उसी प्रकार हैं। परंतु दिव्यध्वनि में युगपत सम्पूर्ण गुण पर्यायों का वर्णन नहीं हो सकता इसलिये दिव्यध्वनि भी नयात्मक हैं । जैसे कि स्याद्वाद्वरि सिद्धसेन दिवाकरने सन्मति सूत्र में कहा है
तित्थयर वयण संगह विसेस पत्थार मूल वागरणी । दवडियो य पज्जबणयो य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥
तीर्थ कर के वचन सामान्य विशेषात्मका है। सामान्य रूप से मूल व्याख्यान करनेवाला वचन द्रव्याधिक नय है। विशेष रुप का प्रतिपादन करनेवाला मूल व्याख्यान पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी मय इन दो नयों के भेद है इसलिये द्रव्यार्थिक अर्थात् निश्चय नय भी मानसी पर वार में प्राषिक नय भी सत्य है।
नय :
जं णाणीण वियप्पं सुयत्रेयं वत्थूयंस संगहणं । तं इह जयं पउत्तं णाणि पुण तेहि गाणेहिं ॥२।। नय चक्र जह्या ण णएण विशा होइ णरस्स सियवाय पडिवत्ती ।
तह्मा सो बोहब्बो एतं हतुकामेण ।।३।। नयचक्र नय :- ज्ञानी का जो विकल्प हैं उसे नय कहते हैं अथवा श्रुत ज्ञान के भेद को नय काहते हैं अथवा वस्तु के एक अंश ग्राही को ज्ञानियों ने नय कहा है । इसलिये नय न पूर्ण ज्ञान है न अज्ञान है परंतु ज्ञानांश है । नय में द्रव्य का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है और नय अन्यथा वस्तु का प्रतिपादन करता है केवल वस्तु अंशग्राही होता है ।।२।।
नय के बिना स्याद्वाद की सिद्धी नही होती है इसलिये स्याद्वाद सिद्धि के लिये एवं एकान्त खण्डन के लिये नय विषयक ज्ञान अनिवार्य है क्योंकि "णयमूलो अणेयंतो” अनेकांत का मूल नय है ॥३॥