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________________ भाव-संग्रह २८३ घाइच उपक्रविणासे उप्पज्ज सयल बिमल केवलयं । लोया लोय पयासं गाणं णिरुपद्दवं णिच्च ।। घाति चतुष्क विनाशे उत्पद्यते सकलविमलकेवलकम् । लोकालोक प्रकाशं ज्ञानं निरुपद्रवं नित्यम् ।। ६६५ ।। अर्थ- जिस समय घातिया कर्मों का नाश हो जाता है उसी समय उन भगवान के पूर्ण निर्मल केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है । वह केवल ज्ञान लोक अलोक सबको एक साथ प्रकाशित करने वाला होता है, उसमें फिर किसी प्रकार का उपद्रव नहीं होता और वह जान फिर कभी भी नष्ट नहीं होता अनंतानंत काल तक बना रहता है। अर्थ- दूसरे शुक्ल ध्यान में वे मुनि अपने एक आत्म द्रव्य का चितवन करते है अथवा उसकी किसी एक पर्याय का चितवन करते, अथवा उसके किसी एक मुण का चितवन करते । उनका वह ध्यान निश्चल होता है। इसको एकत्व वितर्फ कहते है । तद्रव्य गुण पर्यायपरावर्तविवजितम् ।। चिंतनं तदवीचार स्मृतं सद्ध्यानकोविदः ॥ अर्थ- इस दूसरे शुक्ल ध्यान मे द्रव्य गुण पर्यायों का परिवर्तन नहीं होता यदि द्रव्य का ध्यान करता है तो द्रव्य का ही करता रहेगा। यदि मुणों का ध्यान करता है तो उस एक गुण का ही चितवन करता रहेगा, यदि पर्याय का ध्यान करता है तो पर्याय का ही ध्यान करता रहेगा, ससे बदलेगा नहीं। क्योंकि उसका वह ध्यान निश्चल होता है इस ऐसे निश्चल ध्यान को ध्यान में अत्यन्त चतुर गणघर देव अविचार ध्यान कहते है। ___ निज शुद्धात्म निष्ठत्वाद् भावश्रुता वलंबनात् । चिंतनं क्रियते यत्र सवितर्क तदुच्यते ।। । अर्थ- इस ध्यान में वे मुनि अपने शुद्ध आत्मा में लीन रहते है और भाव श्रुतज्ञान का अवलंबन होता है इस प्रकार जो शुद्ध आत्मा का चितवन करना उसको सवितर्क ध्यान कहते है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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