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________________ भाव-संग्रह ___२३५ आगे कुपात्रों को दिये हुए दान का फल बतलाते है । कुच्छिय पत्ते किंचि वि फलइ कुदेवेसु कुणरतिरिएसु । कुच्छिय भोयघरासु य लवणंवुहि कालउवहोसु ।। ५३३ ।। कुत्सितपात्रे किंचिदपि फलति कुदेवेषु कुनरतिर्यक्षु । कुत्सित भोग धरासु च लब णाम्बुधि कालोबधिषु ॥ ५३३ ।। अर्थ-- कुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का कुत्सित ही फल मिलता है और वह उस कुपात्र दान के फलसे कृदेवों में उत्पन्न होता . कुमनुष्यों में उत्पन्न होता है खोटे तिर्यंचों में उत्पन्न होता है और लवणोदधि तथा वालोदधि समुद्र में होने वाली कुभोग भूमियों में उत्पन्न होता है। आगे उन कुमोगभूमियों को और उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को कहते है। लवणे अडयालीसा काल समद्दे य तित्तियाचे व । अंतरदीवा भणिया कुभोग भूमीय विषखाया ॥ ५३४ ।। लवणे अष्ट चत्वारिंशत् कालसमुद्रे च तावन्त एव । अन्तर्वीपा भणिता; कुभोग भूम्यः विख्याताः ॥ ५३४ ।। अर्थ-- लवण दिधि समुद्र में अड़तालीस अंतर्वीप है और कालोदधि समुद्र में भी अडतालीस अंतर्वीप है। इस प्रकार इन छियानवें अंतीपों मे कुभोग भूमियां है। उप्पज्जति मणुस्सा कुपत्तवाणेण तत्थभूमोसु । जुयलेण गेहरहिया गाग्गा तरुमूलिणिवसति ।। ५३५ ।। उत्पद्यन्ते मनुष्याः कुपात्रदानेन तत्र भूमिषु । युगलेन गृहर हिता नग्नाः तरुमूले निवसन्ति ।। ५३५ ।। अर्थ- जो मनुष्य कुपात्रों को दान देता है वह मनुष्य इन कुभोग भूमियों में मनुष्य होकर उत्पन्न होता है । वहां पर सब मनुष्य युगलिया (स्त्री पुरुष दोनों साथ साथ) उत्पन्न होते है, उनके रहने के लिये घर
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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