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अस्थानामात्माश्रित निश्चयधमस्यावकाशो नास्ति ।
(प्र. सा. ता. व. २५४ - पृ. ३४७) विषय कषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रोद्र ध्यानों में परिणत हस्थजनों को आत्माश्रित निश्चय धर्म का अवकाश नहीं है ।
असंयत सम्यग्दृष्टी श्रावक प्रमत्तसंयत्तेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोग वर्तते तदनन्तरमप्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यंत जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेदेन विवक्षितेकदेश शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग वर्तते ।
(द्र. सं. टी. ३८) असंयत सम्यग्दृष्टी से प्रमत्त तक के तीनों गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धोपगंग का साधक ऐसे उत्तरोत्तर विशुद्ध शुभोपयोग वाता है। और उसके अनन्तर अप्रमत्तादि क्षोण कषाय के गुणस्थानों में जवन्यः मा उत्कृष्ट मंद को लिये विवक्षिा एकदेश शुद्ध नया शुद्धोपरांग वर्तता है।
ये गृहस्थापि सन्तां मनामात्म भावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति भवंते ते जिन धर्म बिराधक: मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः ।
जो गृहस्थ होते हुए भी मनाक (थोड़ा) आत्म भावना को प्राप्त करके " हम ध्यानी है" ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म बिराधक मिथ्या .. दृष्टी जानना चाहिये ।
(मो. पा. अध्याय - ३०५)
- कालरात्रि - मोह रेव महा मध: अज्ञानमेव काल रात्रिः
इच्छारेव महास्वप्नं स्वजागृते विनश्यति : २६ ।। मोहमहा मद्म पानेन जोधः
अज्ञान रात्री मध्ये स्पपयति । आकाक्षां स्वप्न पश्यति सर्वदा
आत्म जाग्रते समस्त नश्यन्ति ।। २७ ।।