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इसी प्रकार अन्तरंग चारित्र एवं बाह्य चारित्र रूप कारण से ही मोक्ष प्राप्ति रुप कार्य हो सकता है । अन्यथा नहीं ।
इगरिहालित थ दो मूल का: शिथिलाचार, मनो कल्पित सिद्धांत, हठग्राहितावादी । यदि अंतरंग में परिग्रह की इच्छा नहीं है तो बाह्य में परिग्रह कदापि नहीं हो सकता। यदि बाह्य म परिग्रह है तो अन्तरंग में मूर्छा है ही। इसी प्रकार प्रायः एकान्त निश्चय आध्यात्मवादी करण चरण को छोड़कर स्वछन्द होकर संसार वृद्धि करते हैं। इस प्रकार देवसेन आचार्य ने दर्शनसार में दर्शन विषयक कलंक धोकर निर्मल दर्शन प्राप्त करने का वर्णन किये हैं।
२) नयचक्र
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वर्तमान उपलब्ध नय विषयक स्वतंत्र कृति आचार्य देवसेन की है । आचार्य देवसन द्वारा नय चक्र में गाथाएँ प्राकृत भाषा में है । इस नय चक्र में आचार्य श्रीने सम्पूर्ण नयों का आगमानुसार संक्षिप्त वर्णन किया है । आचार्य श्री अपने काल में नय विषयक ज्ञान में अत्यंत दक्ष थे । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नय चक्र के कर्ता माइल्ल धवल ने देवसेनाचार्य कृत नय चक्र के अवलम्बन से ही नय चक्र की रचना की।
सिय सछसुणय दुग्णय दणुदेह विदारणेक्क वर वीरं । तं देवसेण देवं णय चक्कयरं गुरुं णमह ।।४२३॥
द्रव्य स्वभाव प्रकाशक दव्य सहाव पयासं दोह्य बंधेण आसि जं दिह्र । तं गाहा बंधेण रइयं माइल्ल धवलेण ।।४२४॥ , , सुसमीरणेण पोयं पेरथं संतं जहा तिरणटुं । सिरिदेवसेण मुणिणा तह णय चरक पुणो रइयं ।।४२५।। , ,
स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नयरूपी दैत्य के शरीर को बिहारण करने में एक मात्र बीर नय चक्र के कर्ता उन देवसेन नामक