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________________ ८४ देनेवाले है । गति के निवारण करनेवाले तथा हजारों प्रकार के दुःख इसलिये भव्य जीवो को प्रयत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये । आगे मिथ्यात्व से होने वाली हानियां दिखलाते है । मिच्छणाच्छण्णी अगाइ कार्ल बजगाईभुवणे । भमिओ दुक्खभकं तो जीवो बोयइ गिव्हतो || १६६ ।। मिथ्यात्वेनाच्छन्नोऽनादिकालं चतुर्गतिभुवने । भ्रमितो दुःखान्तो जीवो देहान ग्रह न् ॥ १६६ ॥ अर्थ- मिध्यात्व से आक्रांत हुआ यह जीव अनादि काल से चारों गतियों में अनेक प्रकार के शरीर धारण करता हुआ और अनेक प्रकार के दुःखो को भोगता हुआ इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है । भाव-संग्रह एवंदियाइ पहह जावय पंचक्तविहिजोणीसु । मिह भविस्सयाले पुणरवि मिच्छतपच्छदओ ।। १६७ ।। एकेन्द्रियप्रभृतिषु यावत्पंचाक्षविविधयोनियु | भ्रमिष्यति भविष्यत्काले पुनरपि मिथ्यात्वप्रच्छादितः || || १६७ || अर्थ - एकेन्द्रिय से लेकर पंचेद्रियतक चौरासी लाख योनियां है । वन सव मे यह जीव मिथ्यात्व के कारण ही परिभ्रमण करता रहता है अनादि काल मे आज तक परिभ्रमण करता रहा है और फिर भी मिध्यात्व का सेवन करता है इसलिये भविष्य काल में अनंत काल तक परिभ्रमण करता ही रहेगा | अ अत्तरउद्दारुढो विसमे काऊण विहिपावाई | अभियाणतो धम्मं उपज्जर तिरियणरएसु ।। १६८ ।। आर्ताको विषमाति कृत्वा विविधपापानि । अज्ञानतः धर्म उत्पद्यते तिर्यम् - नरकेषु ॥ १६८ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व कर्मके उदय होने से ये जीव सदाकाल आर्तध्यान और रौद्रध्यान करते रहते हैं और इस प्रकार अनेक प्रकार के महा भयानक पाप उपार्जन करते रहते है। ऐसे लोग धर्म का स्वरूप समझते
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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