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________________ भाव-संग्रह नहीं और इसीलिय वे जीव मरकर नरक गति वा तिथंच गति में जाकर जन्म लेते है। अहवा जह कहव पुणो पावद मणुपत्तणं च संसारे । जु असमिला संजोए लहइण वेसोकुलं आऊ । अथवा यथाकथमपि पुनः प्राप्नोति मनुष्यत्वं च संसारे । . . . . . . संयोगे लभसे न देशं कुलं आयुः ॥ १६१ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य योनि भी प्राप्त हो जाती है तो अशुभ कर्मों के उदय होने से श्रेष्ठ देश, श्रेष्ठ कुल और उत्तम आयु प्राप्त नहीं होती। पउरं आरोपत्तं इंदियपुण्णतणं जोन्वणियं । सुन्दररुवं लच्छो अश्छइ दुक्खेण तप्यतो ।। १७० ॥ प्रचुरमारोग्यत्व इन्द्रियपूर्णत्वं च यौवनम् । सुन्दररुपं लक्ष्मी अयंते दुःखेन तप्यमान: 11 १७० ।। अर्थ-- इस प्रकार क्षुद्र मनुष्य होकर भी बह अनेक प्रकार के दुःखों मे दुःखी होता हुआ अपनी अधिक आरोग्यता की प्रार्थना करता रहता है, इन्द्रियों की पूर्णता की प्रार्थना करता रहता है, यौवन को प्रार्थना करता रहता है और सुन्दर रुप और लक्ष्मी की प्रार्थना करता रहता जइ कह वि हु एयाई पाबई सम्वाइं तो ण पावेई । धम्म जिणेण कहियं कुचिछयगुरुमागलग्गाओ ॥ १७१ ॥ यदि कथमपि हि एतानि प्राप्नोति सर्वाणि हि न प्राप्नोति । धर्म जिनेन कथितं कुत्सितगुरुमार्गलग्नः ।। १७१ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार वह जीव उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम आयु, आरोग्य शरीर इन्द्रियों की पूर्णता, यौवन और सुन्दर रूप भी प्राप्त कर लेता है तो भी कुत्सित वा मिथ्यादृष्टियों के मार्ग में लगा हुआ वह जीव भगवान जिनेन्द्रदेव के कहें हुए धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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