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________________ अमृतवाणी जागृत हो धर्मवीर ! धर्म निर्मूल विध्वंस सहन्ले न प्रभावका । विना सावद्यलेशेन न स्याधर्म प्रभावना ।। माजन्म दिगम्बर भगवत् जिनसेनाचार्य धर्म निमूल बिनाशको धर्मबीर, कर्तव्यनिष्ठ, धर्मप्रभावक मनुष्य सहन नहीं करते है । धर्मरक्षाके लिये यत्किञ्चित पाप भी होता है वह नगण्य है । '' सावध लेशो बहु पुण्य राशी" न्यायानुसार पाप कर्म पुण्य अधिक होने से दोषकर नहीं है, बिना स्वल्प पापसे धर्म प्रभावना नहीं हो सकती है। चेतावन धर्मनाशे शियाध्वंसे सुसिद्धान्तस्य विप्लवे । अपृष्टैरपि बक्तव्यं तत्स्वरूप प्रकाशने || " ज्ञानार्णव" धर्मनारामे, क्रिमाध्वंसे अर्थात् धार्मिक सम्यक क्रियाओं के लोपमे सुआगम सम्मत सिद्धांत का विकल्प होने पर, बिना पूछे भी उनका कथन करने के लिये बोलना चाहिये। महापाप जिणवर आणा भंग उरसूत्त लेस देक्षणयं । आणा भंगे पावंता जिनसमय दुकरं धम्म ।। (उपदेशरत्नमाला) जिनाज्ञा उल्लंघन करके उन्मार्ग उत्सूत्र का जो अंशमात्रभी उपदेश देता है वह जिनाज्ञा भंग करता है । उससे एसा पाप होता है जिससे उसको जिनधर्म पाना दुष्कर हो जाता है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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