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________________ ११४ भाव-संग्रह अथवा यदि कलासहितो लोकव्यापारवत्तनिचित्तः । तहि संसारी नियमात् परमात्मा भवति न हि विष्णु अर्थ- अथवा यदि विष्णु बास्तव में शरीर सहित है और इनका वित्त लोक के व्यापार मे लगा रहता है तो फिर कहना चाहिये कि वह विष्णु नियम से संसारी है वह परमात्मा कभी नहीं हो सकता । इम जाणिऊण पूर्ण पवणय दोसेहि वज्जिओ विण्ह । सो अक्खइ परमप्पा अणतणाणि अराई य ।। २४० ।। इति ज्ञात्वा नूनं नवनवदोष विवजितो विष्णः । स कथ्यते परमात्मा अनन्तज्ञानी अरागी च ॥ २४० ।। अर्थ- ये ऊपर लिखी सब बाते समझ कर कहना चाहिये कि जो विष्णु अठारह दोषो से रहित है अनंत ज्ञानी है और वीतराग है वहीं परमात्मा हो सकता है। इन गुणों के बिना कोई भी परमात्मा नहीं हो सकता। आगे महादेव के लिय कहते है। एवं भणति केई रुद्दो संहरइ तिहवणं सयलं । जितामित्तेण फुड पर णायरतिरियसुरसहियं ।। २४१ ।। एवं भणन्ति केचित् रुद्रः संहरति त्रिभुवन सकलम् । चिन्तामात्रेण स्फुटं नरनारकतियंक्सुरसहितम् ॥ २४१ । अर्थ- कोई कोई लोग ऐसा कहते है कि महादेव मनुष्य तिर्यच देव नारकी आदि समस्त जीवों सहित इन समस्त तीनों लोकों को चितवन करने मात्र से ही शरण भरमें सहार कर डालते है । भावार्थ- क्षण भर में समस्त जीवों का संहार कर डालते है । 8 असेसलोए पच्छा सो कत्थ चिट्टदे रुद्दो । इषको तमंधयारो गोरी गंगा गया कत्थ ।। २४२ ।। मष्टेऽवशेष लोके पश्चात्स कुत्र तिष्ठति रुद्रः । एकस्तमोऽधकारः गौरी गंगा गता कुत्र ।। २४२ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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