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भाव-संग्रह
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की निचासो प्रकृतियों में से बहत्तर प्रकृतियों का और चरम समय में तेरह प्रकृतियों का नाश करके अरहंत भगबान मोक्ष बाम को पधार जाते है।
तेरहवे गुणस्थान में जो एक साता वेदनीय का बंध होता था उसकी उसी गुणस्थान मे व्युच्छिति होने से इस गुणस्थान में किसी का भी बंध नहीं होता । तेरहवे गुणस्थान में जो विया लीय प्रकृतियों का उदय होता है उनमे से वेदनीय, वजन वृषभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त विहायो गति, अप्रशस्त विहायो गति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, सम चतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरु लघुत्व, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रत्येक इन तीस प्रकृतियों की व्युस्छित्ति हो जाती है । शेष वेदनीय, मनुष्यगति मनुष्यायु पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, बस, वादर, पर्याप्त आदेय, यशस्कीति, तीर्थकर प्रकृति और उच्चगोत्र इन बारह प्रकृतियों का उदय रहता है।
तेरहवें गुणस्थान के समान इस गुणस्थान में पिचासी प्रकृतियों का सत्त्व है परन्तु द्विचरम समय में बहत्तर और अंतिम समय मे तेरह प्रकृतियों का सत्त्व नष्ट करके अरहत भगवान मोक्ष में जा विराजमान होते है । यह उपसंहार आवश्यकता समझकर जैन सिद्धांत प्रवेशिका से लिखा है ।।