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________________ घे इन्द्र कुंकम, कपर, चंदन, कालागझ और अन्य सुगन्धित द्रव्यों से उन प्रतिमाओं का विलेपन करते है। कुन्देन्दु हुन्दरेंहि कोषल विमलेहि सुरभिगंधहि । 3 पर कल न तंडुलेहिं पूर्जति जिणिद पडिमाओ ।। १०६ ।। ( तिलोयपण्णत्ति ) ये कुन्द पुष्प व चन्द्रमा के समान सुन्दर, कोमल निर्मल और मुगन्वित उत्तम कलम धान्य के तंदुलों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते है। सयवंतगा य यंपयमाला पुण्णाय तणाय पहुदोहि । अच्चति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं ।। १०७ ।। (तिलोयपण्णत्ति ) वे देव सेवती, चम्पकमाला, पुनाग और नागप्रमूति सुगन्धित पुष्प . मालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते है । १०७ बहु विहर सर्वहिं वर भहि विचित्त रहि । अमय सरिह सुरा जिणिद पडिमाओ महति ।। १०८ ।। ( तिलोयपण्णत्ति ) य देवगण बहुत प्रकार के रसों से संयुक्त, विचित्र रुप वाले और अमृत के सदृश उत्तम भोज्य पदार्थों से ( नैवेद्य ) जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते है। विपकुरिद किरण मंडल मडिद भवणेहि रयण दीहि । णियकाल कलुसेहि पूजति जिणिद परिमाओ ।। १०९ ।। (तिलीयपण्यत्ति ) - काल - अमुस णिच्च सुद्ध पत्तेय लोयाप्पसे विदं । सग पर परिणयाणं णिमित्त काल दम्वत्स धम्मं ।। ३१ ।। (४) लघु द्वादश अनुप्रेक्षा दोहा (हिन्दी) सख धर्म का सार है सर्व चारित्र का सार । सर्व ज्ञान का सार है तत्त्वों का विचार ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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