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________________ भाव-संग्रह विणयादो इह मोक्खं किज्जद्द पुणु तेण गद्दहाईणं । अमुनिय गुणगुणेण य विषयं मिच्छतं गाडियेण ॥ ७४ ॥ विनयतः इह मोक्षः क्रियते पुनस्तन गर्दभाविनाम् । अज्ञानतगुणागुणेन च विनयः मिथ्यात्वनटेन ॥ ७४ ॥ ४५ अर्थ- जो लोग गुण अवगुण को नहीं जानते ऐसे मिथ्यादृष्टी नटों को समझना चाहिये कि यदि विनय करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है तो उनको गया चांडाल आदि सवका विनय करनी चाहिये । परन्तु वे लोग उनका विनय नहीं करते । यह जीव क्षणिक है उत्पन्न होकर दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो जाता है इसलिये जो जीव पाप करता है वा पुण्य करता है उसका फल बह नहीं भोगता वह तो दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो जाता है इसलिये उस पाप वा पुण्य का फल कोई दूसरा ही जीव भोगता है । यही रक्तांबर वा एकान्त मत वा सिद्धांत है। इस प्रकार कल्पना कर उसने बहुतसे लोगों को वश कर लिया था और फिर अन्तमें मरकर वह नरक में उत्पन्न हुआ था | जक्लय णायाईणं दुग्गाखंधाइ अण्णदेवाणं । जो णवइ धम्मजं जो विय हे च सो मिच्यो ।। ७५ ।। यक्षनागादीन् दुर्गास्कन्धाद्यन्यदेवान् । यो नमति धर्महेतोः योपि च हेतुश्च स मिथ्यात्वम् ।। ७५ ।। अर्थ- जो लोग धर्म समझकर यक्ष नाग आदि अन्य देवों को नमस्कार करते हैं उसका कारण भी मिध्यात्व ही समझना चाहिये । भावार्थ- मिथ्यात्व कर्म के उदयसे ही इनकी देव समझकर पूजा करते हैं । पुत्तत्थ माउसत्थं कुणइ जनो देवि चण्डियाविणयं । मारइ छलयसत्यं पुज्जइ फुलाई मज्जेण ॥ ७६ ॥ पुत्रार्थमायुष्यायं करोति जनो देवीचण्डिकाविनयम् | मारयति छागसायं पूजयति कुलानि मद्येन ॥ ७६ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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