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________________ ४४ भाव-संग्रह आगे वैनयिक मिथ्याल का म्वरुप कहते हैं। वेणइयमिच्छादिछी बइ फुडं तापसो हु अण्णाणी । णिग्गुणजम्मि विणओ पत्रं जमाणो हु गर्यायवेओ ।। ७३ ।। बनयिकमिथ्यावृष्टिः भवति स्फुटं तापसो [ज्ञानी । निर्गुणजने विनयं प्रयुज्जमानो हि गतविवेकः ॥ ७३ ॥ अर्थ- ननयिक मिथ्यादृष्टी नापसी होते हैं वे अज्ञानी होने हैं और रहित होते हैं तथा निर्गुण लोगों को भी विनय किया करते हैं । मंसस्य पत्थि जीवो जह फले दुद्ध दहियसकारए । तस्हा तं बंछित्तो नं मक्खंतो ण पाविट्ठी ।। मज्ज ण वज्जिणिज्जं दब दव्वं जह जलं तदा पदं । इय लोए घोसित्ता पट्टियं सच सावज्ज ।। अपणो करेइ कम्म अण्णो तं भजईह सिद्धतं । परिकपिऊण णू णं बसिकिच्चाणिरय मुबवण्णो ।। ( दर्शनसार ) --अर्थ श्री पार्श्वनाथके तीर्थ के समय सरयू नदी किनारे एक पलाश नामका नगर था। उसमें पिहिताधव मुनि का शिष्य बद्धकीति नामका मुनि अनेक शास्त्रों का जानकार था । वह विना दीक्षा लिये ही मनि हो गया था और मत्स्य का मांस खा खा कर भ्रष्ट हो गया था । भ्रष्ट होकर उसने लाल वस्त्र पह्न लिए थे तथा रक्तम्बर नामसे उसने इस एकान्त मत को वृद्धी की थी । उसने इस मंसार में घोषणा की थी कि जिस प्रकार फल दूध दही शक्कर आदि में जीव नहीं है उसी प्रकार मांस में भी जीव नहीं है । इसलिये जो लोग मांस खाने की इच्छा करते है बा मांस भक्षण करते हैं वे पापी नहीं कहला सवाते । इसी प्रकार मद्य का भी त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य है, पतला पदार्थ है। उसी प्रकार मद्य भी द्रव द्रव्य है, एक पतला पदार्थ है । इस प्रकार घोषणा कर उसने समस्तपाप कर्मों की प्रवृत्ती की थी । इसके सिवाय उसने यह भी घोषणा की थी कि
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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