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________________ भाव-मग्रह अर्थात- जो गृहस्थ अपने सब काम छने हुए पानी में करता है वह गृहस्थ मुनी, साधु योगी महाव्रती के समान माना जाता है । इस यह वात सहन रीति से समझ में आ जाती है कि विना छने पानी में स्नान करने मे अनेक प्रकार के जीवों को हिसा होती है और हिसा होने से महा पापों का संग्रह होता है। इसलिये म्नान करने मात्र में पागों की निवृत्ती कभी नही हो सकती किंतु पापों की वृद्धि होती है । इसलिये स्नान करने मात्र से आत्मा को शुद्धि मानना तो बहुत दूर की बात है। वह तो कभी कभी नहीं हो सकती । आरो मुलता के कारण वाला। वणियमसोलजुता णिहय कसाया दयावहाजइगो व्हाणरहिया दि पुरिसा वभंचारो सपा सुद्धा ॥ २५ ॥ खतनियमशोलयुक्ता निहतकवाया दयापरा पतयः । — स्नानरहिता अपि पुरुषा ब्रम्हचारिणः सदा शुद्धा. ॥ २५ ॥ अर्थ- जो मनि पंच महा व्रत धारण करते हैं समिती गुप्ति आदि के समस्त नियम पालन करते हैं पूर्ण शीलवतों का पालन करते हैं, जिन्होंने अपने समस्त कषाय नष्ट कर दिये हैं जो सदा काल समस्त जीवों की दया पालन करने मे तत्पर रहते है और पूर्ण रीति से बिना किसी प्रकार का दोष लगाये पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं ऐसे पूरुष बिना स्नान किये हो सदा शद्ध रहते है। भावार्थ- शरीर और आत्मा दोनों की शुद्धि का कारण पुरे अम्हचर्य है । यदि उसके मात्र व्रत नियम शील पालन किये जाये, आत्मा को अशुद्ध करने वाले समस्त कषायोंको नष्ट कर दिया जाय और समस्त जीवों को दया की जाय, कभी किसी जीव की हिंसा न की जाय तो फिर उस जीव के पूर्व संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार उस आत्मा की उत्तरोत्तर शुद्धि होती जाती है । इस प्रकार संक्षेप से स्नान के दोष बतलाये । अब आगे मांस भक्षण के दोष बतलाते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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