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________________ मोक्ष पदवी को प्राप्त करता है। इसलिए सम्यग्दष्टीका पुण्य परंपरासे मोक्षका कारण है तथा मिथ्यादृष्टी का पुण्य परंपरासे संसार काकारण है। " आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति- " पाप कर्मके उदयसे जीव को जब कष्ट उठाना पड़ता है उस समयमे वह पाप कर्मोका स्वरूप समझकर पापसे निवृत होकर धर्ममे लगता है । जैसे नरक में तीर्व वेदना अनुभव कर नारकी पाप फलों का चितवन करके सम्यग्दृष्टी हो जाता है, इसीप्रकार जीव पापकर्मके फलसे संतप्त होकर पापसे डर कर अधर्म छोडकर धर्म करने लगता है। इसीलिए संसार में विरवत होनेके लिए एवं धर्म में प्रवृत होने के लिए पाप कर्म भी निमित है। अर्थात जिस पाप फलसे दुःखोसे, संतापसे, संकटोसे जीव भयभित होकर धर्म में लगते है वह पाप भी आदेय है । इसलिये भव्य जीवोंको संबोधन करते हुये आचार्योने प्रेरणा दी है " सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म मय तब कार्य । सुखितस्य तद्भाभिवृध्दयं दुःख भुजस्तदुपघाताय ॥ १८ ॥ अर्थ- हे जीव तू चाहे मुख का अनुभव कर रहा हो, चाहे दुःखका अनुभव कर रहा हो, किन्तु संसार में इन दोनो ही आवस्था में एक मात्र कार्य धर्म ही होना चाहिये । कारण यह है की वह धर्म यदि तु सुखका अनुमव कर रहा है तो मेरे उस नुख की वृध्दिका कारण होगा। ओर यदि नू दुःख का अनुभव कर रहा है तो वह धर्म तेरे उस दुःख के विनाश का कारण होगा। ( आत्मानुशासनम् ) ध्यान अवस्था ___अप्रमत्तविरत गुणस्थान- मोक्षमार्गका पथिक जब मोक्षमार्ग के विपरीत जो अंतरंग व बहिरंग परिग्रह उसका त्याग करके मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है, अनादि कालिन संस्कार एवं अनभ्यासके कारण जो कुछ आत्म ध्यानके लिये बाधक कारण प्रमादसे उनको सतत ज्ञानवैराग्यरुपी शस्त्र द्वारा नष्ट करके स्वयं में लीन-स्थिर हो जाता हैं
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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