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________________ उसको ध्यान कहते है । उस आत्मस्थ अवस्था विशेष को अप्रमत्त विरत गुणस्थान कहते है। गडा सेस पमाओ वयगुणसीलेहि मंडिओ गाणी । अणुष समओ अखपओ माणणिनीगो हुअधमालो । ( भा. सं. : पृष्ठ २८२ ) जिस समयमें मोक्षमार्ग ज्ञानी समस्त प्रमादों को नष्ट करके व्रत-गण-शीलसे मंण्डित होकर ध्यानभे लीन होता है, परन्तु उपगम या क्षषक श्रेणी आरोहण नहीं किया है उस समय में अप्रमत्त विरत आत्माबस्था होती है। अनादि कालिन संस्कार के कारण ज्ञानी मुनि ध्यानावस्था में सतत स्थिर नही होता है. इसलिए वह ध्यानावस्था से च्युत होकर प्रमत्तविरत अवस्था को प्राप्त होता है। पुनः शक्तिको संचय कर अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त होकर ध्यान मे लीन हो जाता है । इस प्रकार वह हजारों बार छदुवे से सातवें गुणस्थान में आता जाता रहता है। उत्तम संहननधारी क्षायिक सम्यग्दष्टी महाभुनि उपशमश्रेणी एवं क्षपक श्रेणी दोनो श्रेणी आरोहण करते हैं। परन्तु उपमम श्रेणीवाले अन्तर्मुहर्त काल पूर्ण होने पर एवं क्रोधादि अन्यतर कषायों के उदयसे ग्यारहवे गणस्थान से नीचे गिरकर यथायोग्य गणस्थानको प्राप्त कर लेते है । और बनवृषभनाराच संहननधारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तद्भव मोक्षगामी चरमशरीरी महामनि जब क्षपक श्रेणी आरोहण करते है तब सातिशय सातवे गणरथानसे निरालम्ब शुषलध्यान को जाते है। एवं धम्मज्माणं कहियं अपमत्तगुण समासेण । सालंबमणालंबं तं मुक्खं इत्यं वायव्वं ।। ६३१ ॥ एदम्हि गुणट्टाणे जस्थि आवासयाण परिहारो। झाणमणामि थिरतं णिरतरं अस्थि तं जमा ।। ६४० ॥ (RT. सं. । पृष्ट २९२ )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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