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________________ अर्थ- जो मोही कामअंधा, विषयासक्त, जीव अज्ञानताने धर्म को नष्ट करके विषय मुखाका अनुभव करते वे पापी वृक्षाको जड़ से उखाड़कर फल को ग्रहण करना चाहते है । अर्थात पूर्व पुण्य कर्म के उदयसे जो कुछ वैभव मिला उस वेभव में लीन होकर जो केवल भोगासक्त होता है वह पूर्व उपाजित पुण्य को पूर्ण रूपमे भोग करता है। परन्तु नवीन पुण्यार्जन नहीं करता जिसमे पापहो र उसके पहले में रहता है। उसमें वह नरक निगोद में जाता है। इस लिये पूर्वाजिर पुण्यसे जो वैभव मिला उसके बिना त्याग भोग करनेसे उस दृपयसे उराको दुर्गती हुई इस प्रकार पुण्य हेय है । (झारमानुशासन ) । मिथ्यादष्टीको पापःनवन्धि पुण्य से जो वै मन की प्राात होती है उस वैभव में मिथ्यादृष्टी ल न होकर आसक्लि पूर्वक भोग करता है किन्तु त्याग नही करता उसका वैभत्र अर्थात पुष्यफल ससारका कारण है। इसलिये उमका पुण्य कर्म परम्परासे मोक्ष का कारण नहीं होत, है। किन्तु संसा का कारण होता है । अर्थात पुय फल रूप वैभवको प्राप्त कर जो असलि र्वक भोगता है वह मिश्यादृष्टी है। रागी बहिरात्मा है । सम्यग्दा टीका पुण्य पुण्यानुबंधी पृष्य है, सायग्दृष्टी पुण्य सप वैभव को प्रात कर उसमे वह आसक्ति पुर्वक लोन नहीं रोता है वह मांचता है । जानता है मानता है की यह चमत्र मेरे आम स्वरूप पथक है पुण्यक मंका फल है कुछ चान्त्रि मोहनीय कर्म के उदयसे आत्मिक शक्ति अभाव से रोगी जैसे तिक्त औषध सेवन करता है अनासक्त पूर्वक उसी प्रकार वह सम्यग्दृष्टी भोग को रोग मानकर निरूपाय होवार अनासात पूर्वक भोगता है । वह अनासक्त पूर्वक भोगते हये कर्म को बांधता हो है परन्तु जितने अंश में अनासक्त भाव है उत्तने अंशमे कर्म बंध नहीं होता है । परन्तु अन्तरंग में सतत भोगों की निंदा गहा करते हुए उन भोगोंमें छूटने के लिये रास्ता ढूंढता रहता है। अत्र तक सा पूर्ण भोग, आरंभ, परिग्रहोसे विरक्त नहीं हो पाता है तब तक स्वशक्तिनुसार दान, पूजा, गुरुसेवादि करते हुये पूर्व पुण्य का सदायोग करता है और अत में समस्त अन्तरंग-बहिरंग परिग्रहको त्याग कर निर्ग्रन्थ होकर व्यवहार-निश्चय रत्ननय को साधन कर
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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