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________________ भाग-संग्रह बतलाते है वह कैसे ? यह परिग्रह तो सर्व पापों का कारण है, स्वर्ग मोक्ष का कारण कभी नहीं हो सकता। आग जिन कल्प और स्थविर कल्पका बास्तविक स्वरूप कहते दुबिहो जिणेहि कहिओ जिणकप्पो तह य थविर कप्पो य । सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स ॥ ११९ ।। द्विविधो जिनः कथितो जिनकल्पस्तथा च स्थविरकल्पाच । स जिन कल्प उक्त उत्तमसंहननधारिणः ।। ११९ ॥ अर्थ-- भगवान जिनेन्द्रदेवने जिन कल्प और स्थविर कल्प ऐसे द्वानों प्रकार के मार्ग दिखलाये हैं। इनमें से जो उत्तम संहनन का धारण करनेवाले महा मुनि है वे जिन कल्पी मुनि कहलाते है। आगे जिनकल्पी का और भी स्वरूप कहते हैं। जत्थ ण कदयभग्गो पाए णयाम्म रय पविट्टम्मि । फेडति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिक्का ।। १२० ।। यत्र न कंटकलग्नं पावे नयनयो रजः प्रविष्ट ।। स्फोटयन्ति स्वयं मुनयः परापहारे च तूष्णीकाः ।। १२० ।। अर्थ- यदि जिनकल्पी महा मुनियों के पैर में कांटा लग जाता है अथवा नेत्रों मे धूलि पड जाती है तो वे महा मुनि अपने हाथ से न कांटा निकालते है और न अपने हाथ से नेत्रों से धुलि निकालते है । यदि अन्य कोई दूसरा मनुष्य उस कांटे को वा धुलि को निकालता है तो बे चुप रहते है। भावार्थ- वे महा मुनि अपने पैर के काटे को वा नेत्रों की लि को न तो स्वयं निकालते है और न निकालने के लिये किसी अन्य से कहते है । यदि जान लेने पर कोई पुरुष उनको निकालता है तो भी चुप ही रहते है । कांटा लगने पर विषाद नहीं करते और निकल जाने पर हर्ष नहीं करते । वे दोनों अवस्थाओं में समान वीतराग रहते है। आये और भी कहते हैं।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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