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________________ भाव-संग्रह २८१ कों का उपशम नहीं करते किन्तु मोहनीय कर्म का क्षय करते जाते है इस लयं वे दश गुण स्थान से ग्यारहवे गुण स्थान में नहीं आते किन्तु दहा गुण स्थान से बारहवे गुण स्थान में पहुंच जाते है । इसलिये वे गुग्गुन फिर नीचे के गुण स्थानों मे फिर कभी नहीं आते है। फिर तो बारहवे गण स्थान के अन्त मे धातिया कमों का नाश कर केवल ज्ञान ही प्राप्त करते है। इस प्रकार उपशांत कषाय गुण स्थान का स्बा कहा। ___ आगे क्षीण मोह वा क्षीय पाय नान के बारचे गुन स्थान । स्वरूप कहते है। हिस्सेसमोह खोणे खोण कसायं तु णाम गुणठाणं । पावइ जीवो Yणं खाइयभावेण संजुसो ।। निःशेषमोहक्षीणे क्षीण कषायं तु नाम गुणस्थानम् । प्राप्नोति जीवो नूनं क्षायिक भावेन संयुक्तः ॥ ६५१ ॥ अर्थ- जिस समय उन ध्यानी मुनि के समस्त मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है उस समय उन मुनि के क्षीण कषाय नाम का बारहवा गुण स्थान होता है । बारहवे गुण स्थान में उन मुनियों के क्षायिक भाव ही होते है। जह सुद्ध फलिय भायणि खितं गीर खु हिम्मलं सुखं । तह जिम्मल परिणामो खोण कसाओ मुणेयवो ॥ यथाशुद्ध स्फटिक भाजने क्षिप्तं नीरं खलु निर्मलं सुद्धम् । तथा निर्मल परिणाम: क्षीण कषायो मन्तव्यः । अर्थ- जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक मणि के वर्तन में रक्खा हुआ शुद्ध निर्मल जल सदा शुद्ध निर्मल ही रहता है उसी प्रकार जिसके कषाय सव नष्ट हो चुके है ऐसे क्षीण कषाय गुण स्थान में रहने वाले मुनि के परिणाम सदाकाल निर्मल ही रहते है । आगे बारहवे गुण स्थान मे कौनसा ध्यान होता है सो कहते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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