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________________ की । " गाथार्थरयाविरोधेन नयचक्र मयोच्यते " अर्थात में गाथा के अर्थ से अविनय चक्र को कहता हूँ । एक छंद में कहते हैं :जिशिमत मधा रत्नशैलादपापा, दिह हि समयसाराबुद्ध बुद्धया गृहीत्वा । प्रहलघन विमोहं सुप्रमाणादिरत्नं श्रुत भवनसुदीपं विद्धि तद्वयापनीयम् ।।२।। जिनेन्द्र भगवान के मतपो भूमि में समयसार रुपी निर्दोष पवित्र रत्नपर्वत को बुद्धि के द्वारा अच्छी तरह समझकर, गाढ़ मोह को नष्ट करनेवाले तथा सम्यक् प्रमाणादि रत्नोंबाले "श्रुत भवन दीपक नय चक" को प्रकाशमान करने के उद्देश्य से लिखता हूँ ॥२॥ इसके पश्चात् समयसार की ११, १२, १४३ वी गाथाओं का उल्लेख किया है ववहारोऽभुदत्थो भूवत्थो देसिदो दु सुद्ध णओ । भदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ समयसार प्रथम व्याख्यान को अपेक्षा : व्यवहार नय अमूतार्थ है किंतु शुद्ध निश्चय भूतार्थ है । भूतार्थ का अवलम्बन लेकर जीव सम्यग्दृष्टि होता है ॥११॥ द्वितीय ध्यास्यान की अपेक्षा : ___ द्वितीय व्याख्यानेन पुन: व्यवहारो अभूदत्थो व्यवहारोऽभूतार्थों भदत्यो भूतार्थश्च देसिदो देशितः कथितः । न केवलं व्यवहारो देशित; सुद्धणओ शुद्ध निश्चय नयोपि दु शब्दादयं शुद्धनिश्चय नयो पीति व्याख्यानेन भूता. भूतार्थभेदेन व्यवहारोपि द्विधा शुद्ध निश्चयाशुद्ध निश्चय भेदेन निश्चयनयोपि द्विधा इति नय चतुष्टयं । (श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्य वृत्ति)
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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