SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ भाव-संग्रह एषः प्रकृतिबन्धोऽनु भागो भवति तस्य शताः । अमुभवनं यत्तीव तोयं मन्दे मंदानुरूपेण ।। ३४० ॥ अर्थ- इस प्रकार प्रकृति बध का स्वरूप कहा । इन प्रकृति बंध कों में जो फल देने की शक्ति है उसको अनुभाग बंत्र कहते हैं । यदि उन कर्मों में तीव फल देने की शक्ति है तो उसका अनुभव बा उदय तीवता के साथ होता है और यदि मंद फल देने की शक्ति है तो उसका अनुभव वा फल मंदता के साथ होता है । आग स्थितिबंध बतलाते हैं । एह खलु पठमाण उक्स्सं अंतराइयस्सेव । सं कोडाकोडो सायरणामाण मे व ठिदी ॥ तमणां खल प्रथमाना मुस्त्कृष्ट मन्तरायस्य च । त्रिशत्कोटाकोटि सागर नाम्ना मेव स्थितिः ।। ३४१ ।। म हस्स सत्तरी खलु वीस पुण होई नाम गोत्तस्स । तेतीस सागराणां उवभाओ आउसस्सेव ।। मोहस्य सप्ततिः खलु विशपिः पुन भवति नामगोत्रयोः । त्रयस्त्रिशत्सागराणां उपमा आयुष एव ॥ ३४२ ।। अर्थ- मानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय इन चार कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है मोहनीय कम की स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है, नाम गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर है और आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नेतीस सागर है। आगे जघन्य स्थिति बतलाते है। वारसय बेयणोए जामा गोदे य अ य महता। भिष्ण मुहुतं तु ठिबी सेसाणा सावि पंचम्ह ।। द्वादश वेवनीये नाम गोत्रयोश्च अष्टौ मुहूर्ताः । भिन्न महसंस्तुस्थितिः शेषाणां सापि पंचामाम् ।। ३४३ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy